नवरात्रि आते ही वामपंथी स्त्री विरोधी एजेंडा का चालू होना: क्या यह वामपंथ द्वारा स्त्रियों को औरत बनाने की और हिन्दू पुरुषों के विरोध में खड़ा करने की प्रक्रिया है?

हिन्दुओं के सबसे पावन एवं स्त्रियों की शक्ति के पर्व अर्थात नवरात्रि के आते ही फेमिनिस्टों एवं वामपंथियों का एजेंडा आरम्भ हो जाता है और कहा जाने लगता है कि पूरे साल मारपीट तो वहीं इन नौ दिनों में देवी बनाकर रखना? यह एक ऐसा एजेंडा है, जिसे पहले वामपंथियों ने चलाया और फिर फेमिनिस्टों एवं कथित रचनाकारों ने इसे हाथों हाथ लपक लिया और न जाने कैसी कैसी कविताएँ एवं कहानियां लिखी जाने लगीं।

यह सब उस मनोबल को तोड़ने के लिए थीं, जो हमारी स्त्रियों के भीतर था। वामपंथी लम्पटों का उद्देश्य मात्र ऐसी औरतों का निर्माण करना था, जो देखने से तो हिन्दू रहें, परन्तु उनके भीतर हिंदुत्व का एक भी अंश न रह जाए। उनके भीतर अपनी शक्ति के सबसे बड़े प्रतीक अर्थात दुर्गा माँ के प्रति घृणा भर जाए, अब वह इस घृणा को कैसे भर सकते थे? तो उन्होंने विमर्श एवं साहित्य का सहारा लिया।वामपंथी साहित्य पूरी तरह से स्त्रियों को औरत बनाने की प्रक्रिया में तल्लीन था और अभी तक है। वह कविताएँ लिखता रहा कि स्त्रियों को देवी न माना जाए!

देवी क्यों न माना जाए? देवी की अवधारणा उनकी क्या थी?

क्या देवी की अवधारणा उनकी वहीं से आई थी, जहाँ पर औरतों को या तो पसली से निकली हुई मानी जाती थी या फिर औरतों को जहाँ पर खेती माना जाता है या फिर ऐसा जीव जिसे तब भी अपने शौहर हवस बुझानी है, जब वह ऊँट पर बैठी है?

जबकि हिन्दू धर्म में देवी हर अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित दिखाई गयी हैं, हमारी माता की आराधना हर क्षण की गयी है। स्त्री जब देवी होती है, तो उसके समक्ष देवता भी शीश झुकाते हैं, माँ जब क्रोध में आती हैं, तो स्वयं महादेव को उनका क्रोध शांत करने के लिए आना होता है। देवी दैत्यों का नाश करती हैं, देवी विद्या देती हैं, देवी ही धन प्रदान करती हैं, परन्तु देवी ही हैं, जो विद्या एवं अविद्या के मध्य अंतर बताती हैं, ये देवी ही हैं जो बताती हैं कि लक्ष्मी रूप में किन गुणों से युक्त पुरुष के पास जाएँगी?

ये देवी ही हैं, जो मूल्यों की संवाहक हैं, ये देवी ही हैं, जो हिन्दू स्त्रियों को परिवार का अर्थ समझाती हैं। वह कई रूपों में आती हैं, वह पार्वती के रूप में आती हैं, वह सती के रूप में आती हैं, जिसमें वह यह सबसे महत्वपूर्ण बताती हैं कि यदि विवाह के उपरान्त माँ पिता भी बुलाते नहीं हैं, तो नहीं जाना चाहिए एवं पति की निंदा नहीं सुननी चाहिए! जबकि वामपंथ एवं फेमिनिज्म का पूरा जोर स्त्री को औरत बनाने पर था। इसलिए उन्होंने पहले पति को जानवर एवं सबसे बड़ा खलनायक घोषित किया।

स्त्री को ऐसा रोने धोने वाला महान रूप दिया, जो दरअसल उनका था ही नहीं। वह देवी थी, वह रूप गुणों से युक्त, अपने परिवार का कुशलता से संचालन करने वाली थी, वह अपने बच्चों में मूल्यों का संचार करने वाली थी, वह अपनी संततियों में शत्रुबोध एवं मित्रबोध जागृत करने वाली थी, परन्तु हिन्दू स्त्री को हिन्दू समाज के ही विरोध में खड़ा करने के लिए देवी की अवधारणा को ही विकृत किया गया। और ऐसी कविताएँ लिखी गईं कि स्त्री देवी नहीं है!

उन्हें डरा हुआ दिखाया गया।

जैसे श्रीविलास सिंह की यह कविता

डरी हुई हैं लड़कियाँ

सड़कों पर,

रास्तों में,

उजालों के राजपथ से लेकर

अँधेरों के जंगलों तक

वे डरी हुई हैं।

परन्तु वामपंथी साहित्य इस बात पर मौन है कि आखिर लडकियां क्यों डरी हुई हैं? उनके डरने की प्रक्रिया अंतत: आरम्भ कब से हुई थी? क्योंकि यदि ऐसा होता है तो बात बहुत पीछे तक जाएगी! परन्तु पीछे कहाँ तक जाएगी, क्योंकि वामपंथी साहित्य एक ओर तो यह कहता है कि हमें यथार्थ पर ही ध्यान केन्द्रित करना है और पीछे को भूल जाना है, फिर पीछे को भूल जाने में देवी की अवधारणा को अपमानित करने का क्या औचित्य?

जब उनके लिए जीवन का आरम्भ 1936 के बाद प्रगतिशील साहित्य संघ के गठन के साथ आरम्भ हुआ है, तो उन्हें प्राचीन संस्कृति पर बोलने का अधिकार किसने दिया, किसने उन्हें यह अधिकार दिया कि वह एक मुखौटे के साथ आएं और हमारी संस्कृति पर हमला करें और कहें कि

संस्कृति के सौम्य मुखौटों के पीछे के

तीखी दाढ़ वाले राक्षसों को

देखा है उन्होंने कई बार

घर, बाहर, सब जगह।

वे डरी हुई है!

यदि देवी को जाना होता तो इन तमाम कवियों को स्त्रियों को औरत में बदलने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि स्त्री जब देवी होती है तो पाप को भस्म करती है। जिन आदमियों पर यह कथित लेखक और कवि प्रश्न उठाते हैं कि

पानी में रहते हुए जब गलने लगे उनके हाथ

तो उन्‍हें चूल्‍हे जलाने का काम सौंप दिया गया

इसलिए नहीं कि उनकी आत्‍मा को गर्माहट मिलती रहे

इसलिए कि आग से स्त्रियों की घनिष्टता बनी रहे

और जब उन्हें फूँका जाए

तो वे आसानी से जल जाएँ”

ये जो औरतों को जलाते थे, तो वह किस कारण जलाते थे? जौहर किस कारण होता था? जौहर के कारणों पर क्यों नहीं जाते? वह कभी उन हिन्दू पुरुषों की बात क्यों नहीं करते, जिन्हें कभी मुगलों तो कभी ईसाई आतताइयों ने मात्र इसलिए मार डाला, जला डाला क्योंकि उन्होंने हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा था?

वामपंथी आदमियों ने अपनी लम्पटता के लिए स्त्रियों को औरत में बदल डाला और फिर देवी की अवधारणा को उन औरतों ने ही विकृत करना आरम्भ कर दिया जैसे यह कविता

उनमें से कुछ मौन हैं

कुछ अंजान

उनका मौन और अज्ञान

उन्हें देवी बनाता है

कुछ और भी हैं

पर वे चरित्रहीन हैं

हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!

दुनिया में बस

इतनी ही औरतें हैं!

इतना ही नहीं जो कुप्रथा हिन्दुओं में मुगलों के आने के बाद आरम्भ हुई, अर्थात कन्या की पैदा होते ही हत्या की, उसके लिए कभी कारण नहीं खोजे गए और उसके लिए हिन्दू समाज को दोषी ठहराते हुए यह तक कविताएँ लिख दी गईं कि हे देवी माँ, तुम मत आओ! और कविता की सबसे परम बेवकूफी यह कि कन्या को जन्मते ही मारा जा रहा है, परन्तु स्त्रियों की भीड़ है! अर्थात यदि यह कुप्रथा पहले से थी, तो इतनी स्त्रियाँ कहाँ से आया गईं, जो कन्याओं को जन्म दे रही हैं? ये फेमिनिस्ट औरतें अपनी मानसिक विकृति में बहुत आगे निकल गयी हैं!

क्या हुआ, क्या हुआ की आकुलता इतनी भयानक कि

घर की स्त्रियों में ‘क्या हुआ’ को लेकर द्वंद्व मच गया।

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‘‘लौटाना है, लौटाना है जय माता दी’’

मद्विम स्वर में एक मत से बोल उठा समूह :

‘‘हे देवी

हमारे यहाँ न पधारो, प्रस्थान करो, प्रस्थान करो’’

देव की पूजा, देवी से प्रार्थना

साधारण मानुष का जन्म लेते ही वध।

जैसे यह कविता:

मैं स्त्री हूँ और जब मैं स्त्री हूँ
तो मुझे देवी की तरह हर
हाल में आशीर्वाद की मुद्रा में रहना चाहिए
लोग पूजें या जानवर गोबर करें
शिकायत नहीं करनी चाहिए
अच्छी नहीं लगतीं देवी में
मनुष्य की कमजोरियाँ।

माने जो मौन हैं और जो अज्ञानी हैं, वही देवी हैं और जो मुखर हैं वह चरित्रहीन हैं! अर्थात जो विवश है वह देवी है? हा हा हा, जबकि यह लिखने वाली औरतें यह भूल जाती हैं कि मुखर द्रौपदी, मुखर अहल्या, मुखर तारा, मुखर कुंती, मुखर मंदोदरी को महासती माना गया है, जिनके नाम लेने तक से पाप नष्ट हो जाते हैं:

अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।

पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥

फिर ऐसा क्या हुआ है, कि आज स्त्री नहीं औरत कहलाने में इन औरतों को गर्व का अनुभव होता है और क्या ऐसी विवशता है कि वह लेखक और लेखिकाएं जिनके लिए जीवन या कहें दुनिया मात्र हरम, मुगल, अंग्रेज, अंग्रेजी आदि से आरम्भ होती है, वह हिन्दुओं की देवी की अवधारणा पर कुछ बोल सकें और हमारे पर्वों को दूषित कर सकें?

परन्तु समस्या लेखक नहीं हैं, समस्या विकृत मानसिकता वाले वामपंथी लेखक नहीं हैं, समस्या है जड़ों से कटी एवं इन्हीं विकृत मानसिकता वाले लेखकों की वाहवाही पाने की चाह रखने वाली हिन्दू लेखिकाएँ, जिनके लिए दुनिया इन्हीं लेखकों और आलोचकों तक सीमित है, परन्तु वह अपनी निजी महत्वाकांक्षा का प्रतिशोध आम हिदू स्त्रियों से लेती हैं, और देवी स्वरूपा स्त्री को औरत बनाने के अपने एजेंडे पर काम करती हैं!

साभार- https://hindupost.in/

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