परमिता दास
नई दिल्ली, 12 जुलाई: कभी सिटी ऑफ जॉय कहलाने वाला पश्चिम बंगाल आज डर, बेचैनी और दबे आंसुओं का ताज पहने खड़ा है। कभी कोलकाता की ट्रामों की आवाज, रवींद्र संगीत की मिठास और चाय की अड्डा संस्कृति ने इसे भारत की सांस्कृतिक राजधानी बना दिया था। लेकिन आज वही गलियां अन्याय की चीखों, कानून व्यवस्था के डर और नारों में दबे विरोध से गूंज रही हैं। बंगाल के लोग आज हिंसा, छेड़छाड़, बलात्कार, भ्रष्टाचार और सामाजिक अशांति से जूझ रहे हैं — और उनकी प्रिय दीदी ममता बनर्जी दिल्ली के मैदान में अपने ‘बंगाली स्वाभिमान’ की आवाज़ उठा रही हैं, जबकि उनके अपने घर के आंगन में आग लगी है।
सुरक्षा बनी सिर्फ नारा
पिछले कुछ महीनों में पश्चिम बंगाल में ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जिन्होंने किसी भी सरकार को हिला देने के लिए काफी हैं। आर.जी. कर अस्पताल की वीभत्स बलात्कार कांड से लेकर लॉ स्टूडेंट पर हमला — बंगाल की महिलाएं आज सड़कों पर सहमी हुई नजर आती हैं। मगर सत्ता में बैठी तृणमूल कांग्रेस के लिए ये दर्दनाक कहानियां चुनावी भाषणों के शोर से ज़्यादा नहीं बन पातीं। न्याय फाइलों में दब जाता है, और परिवार राजनीतिक नारों की छांव में अपने आंसू पोछते रह जाते हैं।
आज सवाल उठता है — कब बंगाल का मशहूर ‘अड्डा कल्चर’, कविताओं की आज़ादी और सुरक्षा का भरोसा डर में बदल गया? क्यों पीड़ित परिवार मोमबत्ती मार्च में सुकून पाते हैं, मगर अपनी चुनी सरकार की गारंटी पर नहीं?
आवाज़ें दब गईं, आंदोलन कुचल दिए गए
बंगाल में महिलाएं असुरक्षित हैं, और शिक्षित वर्ग अनसुना। जो शिक्षक कभी बंगाल की बौद्धिक शान थे, आज सड़कों पर बैठे हैं — भर्ती घोटाले और वेतन बकाया की मांग को लेकर। मेरिट लिस्ट वाले महीनों से विरोध कर रहे हैं, बदले में मिले हैं वाटर कैनन और विपक्ष का मोहरा कहे जाने के आरोप। डॉक्टर, जिन्होंने महामारी में मोर्चा संभाला था, आज अपनी सुरक्षा और काम की बुनियादी शर्तों के लिए हड़ताल कर रहे हैं।
ममता बनर्जी अपने अंदाज में इसे विपक्ष की साजिश बताकर टाल देती हैं। सवाल है — यह नेतृत्व है या ऐसी गूंजती दीवार जहां असली शिकायतें मजाक बन जाती हैं?
सीमाएं खुली, अपराध बेखौफ
दिल्ली में दीदी व्यस्त हैं, उधर बंगाल की सीमाएं आज भी बिना रोक-टोक खुली हैं। बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ की खबरें सालों से सुर्खियां हैं — जनसंख्या का संतुलन बदल रहा है, संसाधनों पर बोझ बढ़ रहा है और आरोप हैं कि अपराध दर भी बढ़ रही है। सीमा जिलों के हिंदू परिवार हमलों और पलायन की बात करते हैं — मगर ये कहानियां शायद ही मुख्यमंत्री के भाषणों में जगह पाती हैं।
राज्य को सुरक्षित करने के बजाय सत्ता की नीति तुष्टिकरण का खतरनाक खेल खेलती नजर आती है। सांप्रदायिक तनाव अंदर ही अंदर सुलगता रहता है, और कभी-कभी हिंसा में फूट जाता है — जिसे सरकार दबा देती है या झुठला देती है।
न्यायपालिका की मुश्किलें, लोकतंत्र की परीक्षा
कभी उम्मीद की किरण रही बंगाल की अदालतें आज राजनीतिक दबाव में उलझी हैं। एसएससी घोटाले से लेकर स्कूल जॉब घोटाले तक — कोर्ट के आदेशों पर नौकरशाही ने रोड़े अटकाए हैं। मंत्रियों और नेताओं की गिरफ्तारी भी हुई, मगर ममता ने सबको दिल्ली की साजिश कहकर खारिज कर दिया।
जहां अदालत बोले, वहां लोकतंत्र को सुनना चाहिए। मगर आज के बंगाल में सरकार और बचाव का फर्क धुंधला होता जा रहा है।
दिल्ली डायवर्जन: दीदी का नया रणक्षेत्र
तो सवाल उठता है — दिल्ली क्यों? बंगाली अस्मिता की कथित रक्षक ममता बनर्जी जय हिंद कॉलोनी के लिए आवाज़ उठाती हैं, मगर कोलकाता की झुग्गियों के उजड़ने पर खामोश रहती हैं। केंद्र कार्रवाई करे तो ‘एंटी बंगाली’ — राज्य करे तो ‘विकास’। आम बंगाली समझ गया है कि उनकी मुख्यमंत्री का असली मैदान अब दिल्ली है — कोलकाता के जलते सवाल नहीं।
बंगाल को चाहिए नेता, दिल्ली का प्रवक्ता नहीं
बंगाल कोई राजनीतिक सीढ़ी नहीं है। यह वही भूमि है जिसने भारत को नोबेल विजेता, क्रांतिकारी और कवि दिए हैं। यह लायक है एक सच्चे नेता के — जो वादे ना टाले, नारे ना बेचे।
अगर ममता दीदी सच में बंगाल की रक्षक बनना चाहती हैं, तो रणभूमि कोलकाता की टूटी सड़कें, अशांत सीमाएं और खामोश क्लासरूम होने चाहिए — दिल्ली के स्टूडियो नहीं।
बंगाल को चाहिए असली सुशासन
हर अनसुलझा रेप केस, हर अनसुना शिक्षक आंदोलन, हर नजरअंदाज सांप्रदायिक हिंसा — बंगाल की आत्मा को थोड़ा-थोड़ा तोड़ देती है। nostalgia से ‘सिटी ऑफ जॉय’ नहीं बचेगी। इसे चाहिए सुरक्षा, पारदर्शिता — और ऐसा नेतृत्व, जो सुन सके, भाषण देने से पहले।
अगर ममता बनर्जी सच में बंगाल की अस्मिता के लिए लड़ना चाहती हैं तो पहले अपने घर को सुरक्षित करें। वरना डर है कि यह सिटी ऑफ जॉय सिटी ऑफ भय में बदल जाएगी।
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