मंथन- पंचनद : दैशिक शास्त्र (12)

 स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले स्व का परिचय -डॉ. कृष्ण चंद्र पांडेय

पार्थसारथि थपलियाल
पार्थसारथि थपलियाल

पार्थसारथि थपलियाल
विचार मंथन का उद्देश्य होता है हमें जो मार्ग पकड़ना है उस पर चलने से पहले हम विवेकपूर्ण चिंतन कर उस विचार को मथ लें ताकि यात्रा सुनियोजित तरीके से सफल हो। इस प्रकार का मंथन इस सत्र में हुआ। अगला सत्र दैशिक शास्त्र पर केंद्रित था। यह शास्त्र बहुत से लोगों के लिए नया होगा लेकिन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में राष्ट्रीय विचारों के पोषक लोगों की चिंता थी कि स्वाधीन भारत मे व्यवस्थाएं कैसी चलेंगी। स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक इस समूह का नेतृत्व कर रहे थे। उस समूह में अल्मोड़ा के बद्री शाह ठुलघरिया भी थे। बद्री शाह ठुलघरिया ने तब एक किताब लिखी थी जिसका नाम है- दैशिक शास्त्र। 15 जून 2022 को प्रातः कालीन सत्र में पंचनद शोध संस्थान के निदेशक डॉ. कृष्ण चंद्र पांडेय ने दैशिक शास्त्र पुस्तक में वर्णित विभिन्न पक्षों का सार प्रस्तुत किया। स्वतंत्रता सेनानियों की सोच थी कि अंग्रेजों ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को बहुत प्रदूषित कर दिया। इसलिए जब भारत स्वतंत्र होगा तब हमें भारतीय मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहिए। पंचनद के निदेशक डॉ.कृष्ण चंद्र पांडेय ने दैशिक शास्त्र में वर्णित प्रमुख बिंदुओं से परिचित कराया।
दैशिक शास्त्र में 5 अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय का नाम
देशभक्ति विभूतिकाध्याय है। इस अध्याय में सुख का विवेचन किया गया है। पाश्विक सुख और मानवीय सुख को विस्तार से बताया गया है। आहार, निंद्रा, मैथुन वाला सुख पशुवत है। अपने कर्म के माध्यम से सिद्धि प्राप्ति मानवीय सुख है। यह तीन प्रकार का होता है- सात्विक, राजस और तामसिक।
दूसरा अध्याय दैशिक धर्म व्याख्यान अध्याय है। इस अध्याय में देश तथा जाति शब्द के अर्थ को स्पष्ट किया गया है। चिति देश और जाति को प्राण बताया गया है। चिति का अर्थ स्वभाव है, इसे राष्ट्र की आत्मा बताया गया है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी चिति होती है। इसी अध्याय में धर्म को भी स्पष्ट किया गया है। तीसरा अध्याय स्वातंत्र्याध्याय है। इसमें स्वतंत्रता के अर्थ पर गहन चर्चा है। तीन प्रकार की स्वतंत्रताएं इस अध्याय में बताई गई हैं-1 शासनिक स्वतंत्रता 2. आर्थिक स्वतंत्रता और 3.स्वाभाविक स्वतंत्रता। इस अध्याय में आर्थिक परतंत्रता के कारणों को विस्तार से बताया गया। साथ ही इसके निवारण के उपाय भी बताए गए हैं।
चतुर्थ अध्याय को नाम दिया है- विराट अध्याय। इस अध्याय में राज्य विभाग, वर्णाश्रम विभाग, अर्थायाम, व्यवस्था धर्म और देशकाल विभाग के अंतर्गत स्वराज, परराज, भद्र राज आदि व्यवस्थाएं विस्तार जे बताई गई हैं। पांचवें विभाग को नसम दिया गया है- दैवी संपदा योगक्षेम अध्याय। इस अध्याय के 3 भाग हैं- 1.अधिजनन 2. अध्यापन और 3. अधिलवण। इसी अध्याय में 4 संस्कारों का भी वर्ण है। 1. जन्मांतर संस्कार 2. सहज संस्कार, 3.कृत्रिम संस्कार और 4. अन्वयागत संस्कार।
अध्यापन का अर्थ है उन्नति की ओर ले जाना। धर्म को समझने और पालन करने की शक्ति पैदा करना, पढ़ना, लिखना सिखाना इसमें शामिल है। बाल शिक्षा में सात्विक आहार, पथ्य भोजन, व्यायाम,और ब्रह्मश्चर्य, उदारतापूर्ण शिक्षा, महापुरुषों की जीवनी को भी शामिल किया गया था। स्त्री शिक्षा पर दैशिक शास्त्र में बहुत महत्व दिया गया है। स्त्रियों में दया, करुणा, प्रेम के संस्कार को विकसित करने के उपाय भी बसताएँ गए हैं। वानप्रस्थ की आवश्यकता और युद्धनियोजन पर भी मंथन किया गया है।
बात भले ही स्वतंत्रता के सपने की हो या स्वतंत्र भारत के मौलिक चिंतन की हो। यह शास्त्र पढ़ा जा चाहिए ताकि हम सही अर्थों में स्वतंत्रता की के मर्म को समझ सकें, और स्वाधीनता और स्वतंत्रता को हम भली प्रकार से समझ सकें।

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