मंथन- पंचनद : विमर्श का सांगोपांग मंथन (2)

पार्थसारथि थपलियाल
पार्थसारथि थपलियाल

पार्थसारथि थपलियाल

कुरुक्षेत्र में 14-15 जून 2022 को पंचनद शोध संस्थान का मंथन शिविर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित किया गया। यह वही कुरुक्षेत्र है जहां द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन को अमृततुल्य गीता का ज्ञान ज्ञान का रसपान कराया था। पौराणिक काल मे अनेक ऋषियों और मुनियों ने हरियाणा की इस धरती पर तपस्या की और वैदिक ऋचाएं लिखी। आधुनिक समय के तपस्वी डॉ. स्वामी शास्वता नंद, डॉ. मनमोहन वैद्य, माननीय जे.नंद कुमार जी, और प्रोफ़ेसर बृजकिशोर कुठियाला ने पंचनद के इस मंथन शिविर में अपने ज्ञान और अनुभव से कुरूक्षेत्र में वही रसपान कराया।
14 जून को उद्घाटन सत्र में डॉ. स्वामी शास्वता नंदके उद्बोधन का केंद्र बिंदु था “विमर्श की भारतीय परंपराएं”। उन्होंने अपनी बात भारतीय दर्शन के सत्यान्वेषी और तत्वान्वेषी बिंदु से शुरू किया। उन्होंने बताया कि भौतिकशास्त्र तत्वान्वेषी होता है जबकि दर्शन शास्त्र सत्यान्वेषी होता है। भारतीय ऋषियों ने सत्य के मर्म को समझा और उस पर शोध किये। उन्होनें बताया कि भारतीय जीवन शैली सनातन धर्म पर आधारित है, यह ईश्वरीय ज्ञान से पूर्ण है। यह केवल मानवता का चिंतन नही है बल्कि ब्रह्मांड का चिंतन है, इसीलिए कहा गया है कि “यद पिंडे तद ब्रह्माण्डे”। ब्रह्म विमर्श का विषय रहा है। है। हमारा अधिकतम चिंतन सत्य की खोज को समर्पित है। ब्रह्म पूर्ण चैतन्य है। ब्रह्म के अनुसंधान मार्ग में तीन बिंदु हैं-अस्तित्व, चेतना और अनुभूति।
स्वामी जी ने बृहदारण्यक उपनिषद के एक मंत्र के माध्यम से बताया कि ईश्वर्य सदा पूर्ण ही रहता है।
पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण मुदिच्यतये
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
स्पंदन शास्त्र का उल्लेख करते हुए स्वामी जी ने निष्कल और सकल ब्रह्म की विवेचना की और ॐ में सत, चित आनंद को रूपांकित किया। उन्होंने प्रत्यक्ष ब्रह्म और पराक/ अप्रत्यक्ष ब्रह्म पर विस्तार से जानकारी दी। स्वामी शास्वता नंद जी महाराज ने इस विषय पर भी अपना मत प्रकट किया कि कितने लोगों को मालूम है कि जो अव्यक्त को व्यक्त रूप में जानता है, वह व्यक्ति है? व्यक्ति ये भी तो समझ ले कि वह व्यक्ति के तौर पर उस व्यक्त परमात्मा को कितना जानता है?
लोकतंत्र में जिस अभिव्यक्ति की बात की जाती है वह संख्याबल या संख्यातंत्र है। संख्यातंत्र में महत्वाकांक्षाओं की लड़ाइयां हैं। इसे समझने की आवश्यकता है कि सत्य, धर्म और नीति का अवमूल्यन हुआ है। इस संख्या तंत्र का फल यह है संस्कृति के मूल्यों का हनन हो रहा है इस विषय को आगे बढ़ाने से पहले उन्होंने लोकमांगलिक वाणी पर अपनी बात कही। उन्होंने कहा विमर्श में कभी वाणी के परा, पश्यंति, माध्यम और बिखरी दृष्टि पर भी विचार करना चाहिए। परावाणी, मानव की ब्रह्म चेतना है। पश्यंति, इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति का स्पंदन है। मध्यमा, तथ्य और सत्य की कल्पना है। बैखरी, वाणी के माध्यम से प्रकटीकरण है। इस वाणी का उपयोग सार्थक और सकारात्मक उद्देश्य के लिए हो न कि समाज में विद्रोह या विरोध बढ़ाने के लिए। आज का मीडिया निहित स्वार्थों के लिए समाज को बिगाड़ने में लगा हुआ है। इस मायने में मीडिया गैर इरादतन हत्या का दोषी बनता जा रहा है। विमर्श के लिए तीन प्रकार के बुद्धिजीवियों का संदर्भ लेते हुए उन्होंने कहा समाज में तीन प्रकार के बुद्धिजीवी हैं-
एक वर्ग परंपरावादी हैं। इनकी सोच है जैसा चल रहा है वैसे चलने दें। दूसरा वर्ग मंथरावर्ग का है जिनकी सोच है को भई नृप हमें का हानि.. । तीसरा वर्ग है स्वतंत्रचेता। यह वर्ग स्वतंत्र रूप से चिंतनशील है, लेकिन यह वर्ग अलग थलग पड़ा है। इस वर्ग को क्रियाशील बनाये जाने की आवश्यकता है।

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