समग्र समाचार सेवा
लखनऊ, 9 अक्टूबर: उत्तर प्रदेश की राजनीति आज फिर मायावती के तीखे तेवरों से गूंज उठी। कांशीराम के 19वें परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित बसपा रैली केवल श्रद्धांजलि का मंच नहीं रही, बल्कि राजनीतिक संदेश और आगामी विधानसभा चुनाव के लिए रणनीतिक संकेतों का भी माध्यम बनी।
रैली में मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) पर करारा हमला किया और कांग्रेस को भी निशाने पर लिया। उन्होंने अपने भाषण में सपा को “दोगली राजनीति” का प्रतीक बताते हुए आरोप लगाया कि सत्ता में रहते हुए सपा दलित महापुरुषों की उपेक्षा करती है, और सत्ता से बाहर आते ही उनके नाम पर कार्यक्रम आयोजित करती है। अखिलेश यादव पर उन्होंने सीधा निशाना साधते हुए कहा कि उनके शासन में कांशीराम नगर का नाम बदल दिया गया, जबकि बसपा शासन में इसे दलित अस्मिता का प्रतीक बनाया गया था।
मायावती ने सपा के “पीडीए” (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) नारे को राजनीतिक पाखंड बताया और कहा कि सपा इन तबकों को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती है। उनका यह संदेश स्पष्ट रूप से पुराने वोटबैंक—जाटव, पासी और वाल्मीकि समुदाय—को पुनः बसपा से जोड़ने की रणनीति का हिस्सा था।
कांग्रेस पर हमला करते हुए मायावती ने बाबा साहब आंबेडकर के प्रति कांग्रेस की “ऐतिहासिक उपेक्षा” याद दिलाई। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने न तो उन्हें लोकसभा भेजा, न जीवनकाल में भारत रत्न प्रदान किया। साथ ही, मंडल आयोग की रिपोर्ट बसपा के प्रयासों से लागू हो सकी थी।
रैली का एक अनोखा पहलू तब आया जब मायावती ने भाजपा की राज्य सरकार की सराहना की। उन्होंने बताया कि कांशीराम स्मारक के लिए टिकट से मिली राशि का सही उपयोग भाजपा सरकार ने किया, जबकि सपा सरकार ने उसे दबा रखा था। इस बयान के माध्यम से मायावती ने भाजपा के साथ सीधा टकराव टालते हुए विपक्षी गठबंधनों से दूरी बनाए रखी और अपनी ‘सॉफ्ट पॉलिटिकल बैलेंसिंग’ का संदेश दिया।
विश्लेषकों का मानना है कि मायावती का यह भाषण पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश में सपा के दलित वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश है। यदि बसपा अपने पारंपरिक मतदाताओं को भावनात्मक रूप से जोड़ने में सफल होती है, तो सपा को नुकसान हो सकता है। साथ ही, कांग्रेस विरोधी रुख विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं को कमजोर कर सकता है।
कांशीराम की पुण्यतिथि का यह मंच बसपा की राजनीतिक पुनर्प्रविष्टि और दलित एजेंडा पर अपनी मजबूती दिखाने का अवसर भी साबित हुआ। मायावती ने साफ कर दिया कि दलित राजनीति की असली आवाज बसपा ही होगी, जो न सत्ता के लालच में झुकेगी और न किसी गठबंधन में घुलेगी।
इस रैली ने न केवल उत्तर प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों में नया कोण पेश किया, बल्कि 2027 के विधानसभा चुनाव की दिशा में भी राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया।
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