मिर्च-मसाला: न्यूज़ चैनलों के प्रति कांग्रेस का बदलता नज़रिया

त्रिदीब रमण
त्रिदीब रमण

त्रिदीब रमण 
भभकती रोशनी, मेकअप रंगे चेहरे, चुप्पी साधे हुए कैमरे
आइनाखाने ने भी जाने क्या यह कमाल का इनाम बख्शा है
सबको दिखाते हैं आइने, कहां कभी उसमें अपना चेहरा देखा है’
अब गोदी न्यूज़ चैनलों को लेकर कांग्रेस ने अपने नज़रिए में एक व्यापक बदलाव किया है। 2019 के आम चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस ने एक तरह से तमाम गोदी न्यूज़ चैनलों का बॉयकॉट कर रखा था, इन चैनलों द्वारा आयोजित डिबेट में कांग्रेस का कोई आधिकारिक प्रवक्ता शामिल ही नहीं होता था। कुछ समय के सन्नाटे के बाद आखिरकार टीवी चैनलों ने भी इसका तोड़ निकाल लिया, चैनल वालों ने कुछ लोगों की शिनाख्त की और उन्हें ’कांग्रेस समर्थक’ का तमगा ओढ़ा अपने डिबेट में पेश करने लगे। चैनल की ओर से इन कथित समर्थकों को पहले ही संभावित सवाल और उनके जवाब भेज दिए जाते थे, इस वजह से ये ’कथित समर्थक’ डिबेट में न तो पार्टी लाइन पर बात कर पाते थे और न ही कांग्रेस पार्टी का किंचित बचाव ही कर पाते थे, एंकर भी उनसे जो मनमाफिक कहलवाना चाहते थे, वो उनसे कहलवा लिया करते थे। कमोबेश यही हाल तृणमूल व सपा जैसी पार्टियों का भी था जो अपने प्रवक्ता इन चैनलों के डिबेट में नहीं भेजना चाहते थे। उनके भी छद्म समर्थकों की एक पूरी जमात चैनल वालों ने पैदा कर ली थी। इसके बाद कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं को इन डिबेट में शामिल होने की इजाजत दे दी ताकि वे जोरदार तरीके से डिबेट में अपनी बात रख सकें और पार्टी का बचाव कर सकें। सनद रहे कि पिछले दिनों सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी उस भगवा रंग में रंगे एंकर को अपने घर बुला कर इंटरव्यू दिया, जो एंकर अखिलेश को ’टोटी चोर’ की उपाधि से विभूषित किया करती थीं। छत्तीसगढ़ सरकार एक न्यूज़ चैनल द्वारा आयोजित कॉन्क्लेव की मुख्य स्पांसर थीं पर वहां के मुख्यमंत्री बघेल ने उस कॉन्क्लेव में जाने से मना कर दिया, क्योंकि चैनल का वह प्रमुख एंकर बिलावजह कांग्रेस को गाली देने के लिए ख्यात है। कुछ कांग्रेसी प्रवक्ताओं की तो यह भी शिकायत है कि भाजपा के प्रवक्ताओं को डिबेट में विशेष तरजीह दी जाती है, यहां तक कि ब्रेक के दौरान कार्यक्रम का एंकर उन्हें यह समझाते हुए दिख जाता है कि ’अगर उनसे अमुक सवाल पूछा जाएगा तो उन्हें उसका क्या जवाब देना है।’
राहुल पर भाजपा के नजरिए का समर्थक नहीं संघ
यह बात सुनने में किंचित अटपटी लग सकती है, पर संघ से जुड़े विश्वस्त सूत्र खुलासा करते हैं कि संघ नेतृत्व की यह सोच है कि भाजपा सरकार राहुल गांधी पर जितना शिकंजा कसेगी, वह उतना ही जन सहानुभूति के पोषक बन कर उभरेंगे। सूत्रों का यह भी दावा है कि राहुल से तमाम वैचारिक मतभेदों के बाद भी संघ सरकार से इस बात के लिए एक राय नहीं रखता था कि राहुल की संसद सदस्यता जाए या उनसे उनका सरकारी आवास इतना अफरा-तफरी में छीन लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम फैसला आते ही सोमवार को ही जिस तेजी से राहुल की संसद सदस्यता बहाल कर दी गई और मंगलवार को उन्हें उनका घर दे दिया गया, कम से कम यह तो राहुल पर संघ के मनोभावों का ही एक उदाहरण है। संघ के एक बड़े नेता ऑफ द् रिकार्ड कहते हैं कि सरकार के शीर्ष नेतृत्व को नेहरू सा उदारमना होना चाहिए, इसे एक उदाहरण में समझाते हुए वे कहते हैं-’अपने समय में जनकवि नागार्जुन नेहरू के कट्टर आलोचक हुआ करते थे, एक बार बाबा को उस सभा में कविता पाठ करना था जहां पंडित जी को मुख्य अतिथि के तौर पर पधारना था, बाबा नागार्जुन को जब पता चला कि उस सभा में नेहरू भी आ रहे हैं तो उन्होंने वहां आने से मना कर दिया।’ नेहरू ने तब अपनी पुत्री इंदिरा को बाबा को समझाने को भेजा और उन्हें संदेशा भिजवाया कि ’वे आएं और अपनी जो भी कविता मेरे समक्ष पढ़ना चाहते हैं, शौक से पढ़ें, मुझे इसका कुछ भी बुरा नहीं लगेगा।’ बाबा आए और उन्होंने अपनी पहली ही कविता नेहरू के सामने पढ़ी-’वतन बेच कर भी पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं, फिर भी बापू की समाधि पर झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं।’ सबसे मजे की बात तो यह कि यह कवि गोष्ठी नेहरू के जन्मदिवस पर ही आयोजित की गई थी। संघ का शायद इसीलिए इस बात पर खास जोर रहा कि ’राहुल गांधी की संसद की सदस्यता तत्काल बहाल होनी चाहिए, जिससे कि वे सदन में बोलेंगे तो भाजपा उन पर बीस साबित होगी। अगर राहुल संसद के बजाए सड़क पर ही उतरे रहेंगे तो वे जनभावनाओं को ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं।’
घटक दलों को भाव देती भाजपा
यह मौका अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने के बहुत दिनों बाद आया है जब भाजपा एनडीए के घटक दलों को इतना भाव दे रही है। सबसे अहम बात तो यह कि इस बात की पहल भी पीएम मोदी की ओर से हुई है, जो 2024 की चुनावी तैयारियों में अभी से जुटे हैं। मोदी नहीं चाहते कि एनडीए के घटक दलों को सीटों का कोई नुकसान हो, सो अब स्वयं पीएम साथी दलों से नाश्ते व भोजन पर मिल रहे हैं, उन्हें जीत का गुर सिखा रहे हैं। 31 जुलाई से शुरू होकर इन बैठकों के दौर 10 अगस्त तक जारी रहे। घटक दलों से समन्वय बिठाने के लिहाज से उन्हें 10-10 के ग्रुप में बांट दिया गया है और हर ग्रुप की जिम्मेदारी एक सीनियर मंत्री के हवाले कर दी गई है। पर सबसे हैरत की बात तो यह कि एनडीए की इन तमाम बैठकों से भाजपा का पुराना साथी अकाली दल नदारद है। किसान आंदोलन के वक्त से ही अकालियों ने सुविचारित तरीके से भाजपा से दूरी बना ली है, अकाली दल को लग रहा है कि भाजपा के साथ जाने से उनके दो परंपरागत वोट बैंक जाट व जटसिख उनसे टूट जाएंगे, इसीलिए अकाली दल ने अपने साथ चुनाव में जाने के लिए भाजपा के बजाए बसपा को चुना है, क्योंकि पंजाब में दलितों की एक बड़ी आबादी है।
हाशिए पर आते सिंधिया
भाजपा नेतृत्व ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में जाने-अनजाने महाराज की अनदेखी शुरू कर दी है, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ज्योतिरादित्य सिंधिया के बजाए प्रांत के दो पुराने नेताओं यानी कैलाश विजयवर्गीय और नरेंद्र सिंह तोमर पर दांव लगाना ज्यादा पसंद कर रहा है। विजयवर्गीय व सिंधिया में छत्तीस का आंकड़ा कोई छुपी बात नहीं है। चूंकि भाजपा कैडर में ही सिंधिया के खिलाफ अंसतोष के बुलबुले फूटने लगे थे, पार्टी में उठ रहे इस असंतोष को थामने की जिम्मेदारी अब विजयवर्गीय व तोमर को मिली है। वैसे भी कैलाश विजयवर्गीय भाजपा के नंबर दो अमित शाह की निजी पसंद बताए जाते हैं। विजयवर्गीय ने अभी पिछले दिनों इंदौर में अमित शाह की एक बड़ी रैली करवा कर यह साबित कर दिया है कि वे कोई चूके कारतूस नहीं हैं। मालवा क्षेत्र किसी भी कीमत पर भाजपा गंवाना नहीं चाहती, सो विजयवर्गीय को यह अहम जिम्मेदारी भी मिली है कि ’वहां वे पार्टी से रूठे साथियों को मना कर फिर से भगवा रंग में रंग दें, जिस कार्य में उन्हें सिद्दहस्ता हासिल है।’ वहीं सिंधिया को अब तलक ग्वालियर-चंबल संभाग की कोई औपचारिक जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई है।

क्या महाराष्ट्र को नया मुख्यमंत्री मिलेगा?
आने वाले कुछ दिनों में महाराष्ट्र में एक बड़ा सियासी धमाका हो सकता है, विश्वस्त सूत्रों के दावों पर यकीन किया जाए तो महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन की पूरी संभावना है, वहां एकनाथ शिंदे की जगह अजित पवार राज्य के नए मुख्यमंत्री हो सकते हैं। कहते हैं भाजपा राज्य के मराठा वोटरों को लेकर खासी चिंचित है, राज्य के मराठा मतदाताओं का रुझान अभी भी कहीं न कहीं उद्धव ठाकरे की ओर दिख रहा है, इसे देखते हुए ही भाजपा मराठा क्षत्रप अजित पवार पर दांव लगाना चाहती है। वहीं भाजपा का एक वर्ग ऐसा भी है जो अजित के बजाए किसी ओबीसी नेता को सीएम की कुर्सी सौंपनी की वकालत कर रहा है। महाराष्ट्र के पेंच की वजह से ही केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार लगातार टलता जा रहा है, क्योंकि एनसीपी की ओर से प्रफुल्ल पटेल को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिलनी तय मानी जा रही है, सूत्रों की मानें तो प्रफुल्ल पटेल स्टील मंत्रालय का प्रभार मिल सकता है।


…और अंत में
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में नाक रगड़ कर ईडी निदेशक संजय मिश्रा का कार्यकाल भले ही 15 सितंबर तक बढ़वा लिया हो, पर अब ब्यूरोक्रेसी में ही ये सवाल उठने लगे हैं कि मौजूदा सरकार का आखिरकार रिटायर्ड ब्यूरोक्रेटस में इतना भरोसा क्यों हैं, जबकि भाजपा में 75 प्लस नेताओं को रिटायर कर देने की परंपरा है। जैसे रिटायर्ड हो चुके राजीव गाबा, पीके मिश्रा, संजय मिश्रा, नृपेंद्र मिश्रा जैसे लोग क्यों अब भी सरकार की सेवा में जुटे हैं। संजय मिश्रा को तीन बार सेवा विस्तार मिल चुका है, कैबिनेट सचिव राजीव गाबा भी तीन दफे सेवा विस्तार का लाभ उठा चुके हैं, प्रधानमंत्री के प्रिसिंपल सेक्रेटरी पीके मिश्रा की उम्र 75 वर्ष हो चुकी है। क्या सरकार को भरोसे के अफसर का संकट है या रीढ़ हीन ब्यूरोक्रेसी की कमी पड़ गई है?

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