मोहान भागवत ने शिक्षा और स्वास्थ्य की बढ़ती लागत पर जताई चिंता, कहा सेवा भाव की जरूरत

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 11 अगस्त: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने देश में स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा की बढ़ती लागत पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि ये दोनों क्षेत्र अब आम जनता की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं और इनमें सेवा भाव की जगह व्यवसायिक दृष्टिकोण हावी हो गया है।

माधव सृष्टि आरोग्य केंद्र के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए भागवत ने कहा, “पहले शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा लोगों को सेवा भाव से प्रदान की जाती थीं, लेकिन अब यह एक व्यापार बन गई हैं। समाज को फिर से इन क्षेत्रों में सेवा की भावना को प्राथमिकता देनी होगी।”

कैंसर उपचार में असमानता
भागवत ने विशेष रूप से कैंसर उपचार की सुविधाओं में मौजूद असमानताओं पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि देश में उन्नत चिकित्सा सुविधाएं केवल 8 से 10 शहरों तक सीमित हैं, जिससे ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों के मरीजों को इलाज के लिए भारी खर्च और लंबी यात्रा करनी पड़ती है।
“स्वास्थ्य देखभाल को लोगों के लिए चिंता का विषय नहीं बनना चाहिए,” उन्होंने स्पष्ट किया।

व्यक्तिगत देखभाल का महत्व
अपने बचपन का एक अनुभव साझा करते हुए भागवत ने बताया कि जब उन्हें मलेरिया हुआ था, तब उनके शिक्षक ने उनके इलाज के लिए जंगली जड़ी-बूटियां जुटाईं। उन्होंने कहा, “उस समय समाज में व्यक्तिगत देखभाल का भाव था, जो आज कम होता जा रहा है। हमें इसे फिर से जीवित करना होगा।”

भागवत ने चेतावनी दी कि भारतीय संदर्भ में पश्चिमी चिकित्सा अनुसंधान को बिना सोच-समझ के लागू करना सही नहीं है। उन्होंने कहा कि अलग-अलग लोगों को अलग चिकित्सा पद्धतियों से लाभ होता है — चाहे वह प्राकृतिक चिकित्सा हो, होम्योपैथी या एलोपैथी।

चिकित्सा पद्धतियों की तुलना
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि कोई भी एक चिकित्सा पद्धति सर्वोच्च नहीं हो सकती। भारतीय चिकित्सा प्रणालियां मरीज की व्यक्तिगत जरूरतों के अनुसार उपचार प्रदान करती हैं। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी समान स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा कि कई छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।

सेवा भाव बनाम तकनीकी शब्दावली
मोहन भागवत ने कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) जैसे तकनीकी शब्दों को खारिज करते हुए कहा, “हमारे पास सेवा के संदर्भ में एक सुंदर शब्द है — धर्म। यह केवल एक कर्तव्य नहीं बल्कि समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी का भाव है।”

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