रमेश शर्मा
प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी ने विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के नये परिसर का लोकार्पण करके जहाँ भारत के स्वत्व और साँस्कृतिक पुनर्जागरण एवं पुनर्प्रतिष्ठा अभियान में एक कड़ी और जोड़ी। वहीं भारत के गौरवशाली इतिहास से छेड़छाड़ करने और सामाजिक विद्वेष फैलाने का कुचक्र करने वाले भी सक्रिय हो गये ।
पिछले दिनों संपन्न नालंदा विश्वविद्यालय के पुनर्निर्माण और पुनर्प्रतिष्ठा आयोजन में प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी के साथ विदेश मंत्री एस जयशंकर, बिहार के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी एवं विजय सिन्हा के अतिरिक्त विव्व के 17 देशों के राजदूत भी इस समागम के साक्षी बने । इस नवीन परिसर का निर्माण नालंदा के प्राचीन खंडहरों से लगभग दस किलोमीटर दूर किया गया है । प्रयास है कि इसका स्वरूप ठीक वैसा ही हो जैसा प्राचीन इतिहास के विवरण में नालंदा का मिलता है । इसके पुनर्जीवित करने का सुझाव 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा एपीजे अब्दुल कलाम ने दिया था । इसके बाद 2007 में दूसरे पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में सोलह सदस्य देशों ने इस सुझाव को समर्थन दिया । 2009 में, चौथे पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया, चीन, कोरिया, सिंगापुर और जापान आदि देशों सहयोग का आश्वासन दिया । प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस कार्य को आगे बढ़ाया और 2017 से निर्माण कार्य तेज हुआ । यह नवीन परिसर कुल 446 एकड़ भूमि पर बन रहा है ।
नालंदा का गौरवमयी इतिहास
इतिहास में जहाँ तक दृष्टि जाती है नालंदा का उल्लेख मिलता है । जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने नालंदा में प्रवास किया था और यहीं उनकी भेंट गौतमबुद्ध के शिष्य सारिपुत्र से हुई थी । पुरातात्विक विशेषज्ञों को नालंदा की खुदाई में बारह सौ वर्ष ईसा पूर्व के वर्तन मिले हैं। नालंदा को केन्द्र बनाकर इसके आसपास लगभग तीन किलोमीटर क्षेत्र में खुदाई की गई। जिसमें ये काले बर्तन और अन्य वस्तुएँ मिली हैं । इनका कार्बन पद्घति से विश्लेषण किया । इस परीक्षण द्वारा इस सामग्री को ईसा पूर्व 1200 का माना गया। इससे स्पष्ट है कि आज से लगभग सवा तीन हजार वर्ष पूर्व भी नालंदा में बसाहट थी । प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में भी नालंदा का उल्लेख है । सम्राट अशोक द्वारा नालंदा में एक विहार की स्थापना का विवरण भी मिलता है । इससे प्रमाणित है कि मौर्य काल में भी नालंदा का अस्तित्व में था । लोक गाथाओं में आचार्य चाणक्य के नालंदा में शिक्षक होने का उल्लेख आता है । इन सभी संदर्भों से स्पष्ट है कि नालंदा का यह शिक्षा केन्द्र अति प्राचीन है । गुप्तकाल तक इसकी प्रतिष्ठा वैश्विक हो गई थी । नालन्दा संसार का पहला अंतरराष्ट्रीय आवासीय विश्वविद्यालय माना गया है । यद्यपि मौर्य काल में तक्षशिला और अवंतिका में भी आवासीय विश्वविद्यालय थे पर उनका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय नहीं था । छठी शाताब्दी में 8500 विद्यार्थियों एवं 1510 शिक्षकों के होने का उल्लेख है । तब आठ खंड और 300 कमरे होने का विवरण मिलता है । प्रत्येक खंड में विद्यालय तथा छात्रावास परिसर अलग-अलग थे। भोजन तैयार करने की तकनीकि इतनी उन्नत थी कि एक चूल्हे में आग जलाने से उसके समीप चार चूल्हों में आँच पहुँच जाती थी । खंडहरों ऐसे उन्नत चूल्हों के निशान अभी हैं। जिनका अध्ययन करने केलिये संसार भर से शोधार्थी आते हैं। नालन्दा विश्वविद्यालय के इन खंडों की खुदाई में विशाल और कलात्मक भवन के चिन्ह मिले हैं। ये चिन्ह दोनों प्रकार के हैं। शिल्प भी और चित्रकारी भी । इनके अतिरिक्त मूर्तियाँ भी मिली हैं । ये मूर्तियाँ सभी प्रकार की हैं। भगवान बुद्ध की भी और नारायण एवं शंकर जी की भी । चीनी यात्री हेनसांग दस वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में रुका था । उसने यहीं रहकर भारतीय ग्रंथों और भारतीय धर्म दर्शन एवं साहित्य का अध्ययन किया था। उसके अनुसार इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सरल नहीं था। यहाँ केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र ही प्रवेश पा सकते थे। प्रवेश के लिए पहले छात्र को परीक्षा देनी होती थी। इसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश संभव था। विश्वविद्यालय के छ: द्वार थे। प्रत्येक द्वार पर एक द्वार पण्डित होता था। प्रवेश से पहले वो छात्रों की वहीं परीक्षा लेता था। इस परीक्षा में 20 से 30 प्रतिशत छात्र ही उत्तीर्ण हो पाते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद भी छात्रों को कठोर परिश्रम करना पड़ता था तथा अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। यहाँ से स्नातक करने वाले छात्र का हर जगह सम्मान होता था।
चीन में इत्सिंग और हुइली और कोरिया से हाइनीह, यहाँ आने वाले विदेशी यात्रियों में मुख्य है। 630 ई. में जब युवानच्वांग यहाँ आए थे तब यह विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस कालखंड में यहाँ दस सहस्त्र विद्यार्थी और एक सहस्त्र आचार्य थे । यहाँ अध्ययन के लिए चीन के अतिरिक्त चंपा, कंबोज, जावा, सुमात्रा, ब्रह्मदेश, तिब्बत, लंका ईरान और यूनान आदि देशों के विद्यार्थी भी आते थे । सातवीं शताब्दी में एक अन्य चीनी लेखक युवानच्वांग ने यहाँ भवनों को सतमंजिला लिखा है । इतिहास में नालंदा विश्वविद्यालय का वैभव विवरण इसकी स्थापना कमसे कम भी ईसा पूर्व पाँच वर्ष पूर्व होने का संकेत देते हैं।
बख्तियार खिलजी ने किया था नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस
विश्व प्रसिद्ध इस शिक्षा और अनुसंधान केन्द्र का विध्वंस बख्तियार खिलजी ने किया था । बख्तियार खिलजी एक अफगानी लुटेरा था । वह 1193 में भारत आया था । वह मूलतः दक्षिण अफगानिस्तान के हेलमंड के तुर्किक जाति का था । भारत में यह काल-खंड बहुत उथल-पुथल से भरा था । दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान की पराजय हो गई थी और मोहम्मद गौरी अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन को पृथ्वीराज चौहान से जीते गये क्षेत्र का प्रबंधक बना कर लौट गया था । एक बार से उत्तरी भारत लुटेरों का केन्द्र बन गया था । अवसर का लाभ उठाने केलिये ही बख्तियार भारत आया था । वह पहले कुतुबुद्दीन की सेना में जमादार बना । फिर मलिक हिजबर अलदीन की सेना में एक टुकड़ी का प्रभारी बना । उसने पूरे अवध में भारी लूट और हत्याएँ कीं । इससे खुश होकर अलदीन ने उसे मिर्जापुर का किलेदार बना दिया। बख्तियार ने अवसर का पूरा लाभ उठाया । उसने दो सौ घुड़सवारों और दो हजार पैदल सिपाहियों की एक बड़ी सेना एकट्ठी कर ली । अपनी लूट का दायरा बढ़ाया । वह उत्तर प्रदेश को लूटता हुआ मगध में घुसा। लूटमार करता हुआ वह नालंदा विश्वविद्यालय पहुँचा । शिक्षकों और छात्रों का सामूहिक नर संहार किया । उन्ही के प्राण बच सके जिन्होंने गुलाम बनना स्वीकार कर लिया था । वह लगभग दो वर्ष मगध में रहा । नालंदा में तब नब्बे हजार से अधिक पांडुलिपियाँ थीं । उनमें एक न बची । नालंदा विश्वविद्यालय को खंडहर बनाने और सभी ग्रंथ चलाने में बख्तियार को छै माह लगे थे ।
इतिहास से छेड़छाड़ के साथ सामाजिक विद्वेष फैलाने का कुचक्र भी
भारत में एक ऐसी अंतर्धारा सदैव रही है जो भारत के इतिहास और संस्कृति के दस्तावेजीकरण के लिये किसी विदेशी लेखक को प्रमाण मानते हैं । इसकी झलक नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास लेखन में भी मिलती है । पुरातात्विक अनुसंधान और प्रचीन बौद्ध एवं जैन साहित्य में नालंदा का उल्लेख मिलता है । लेकिन इतिहासकारों की एक धारा नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना को गुप्तकाल का बताते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय को पहली बार यूरोपीय लेखक कनिंघम ने गुप्तकालीन बताया था । उसके बाद कुछ इतिहासकार कनिंघम द्वारा निर्धारित समय को प्रमाणित करने में पूरी ताकत लगा रहे हैं। इसके लिये वे चीनी यात्री फाइयान की भारत यात्रा के विवरण का तर्क देते हैं। उनका तर्क है कि फाइयान के विवरण में नालंदा का उल्लेख नहीं है । जबकि तिब्बत के अनैक बौद्ध लेखकों के विवरण में फाइयान की नालंदा यात्रा और उसके द्वारा नालंदा की भव्यता का उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार बौद्ध साहित्य में सम्राट अशोक द्वारा विवरण मिलता है । इसे भी वामपंथी धारा के इतिहासकार नकारते हैं। वस्तुतः इतिहास लेखन की इस मानसिकता में स्वत्व वोध कम है । सल्तनतकाल काल और अंग्रेजीकाल समाप्त हो जाने के बाद भी स्वाभिमान जागरण नहीं पाया।
नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास की यह छेड़छाड़ अब भारत में सामाजिक विद्वेष फैलाने के षड्यंत्र तक आ पहुँची। यदि हम बौद्ध परंपरा का आरंभिक साहित्य देखें तो यह सनातन सिद्धांत की एक शाखा लगती है । सनातन परंपरा में सगुन और निर्गुण दोनों धारायें हैं। भगवान बुद्ध का दर्शन सगुन परंपरा को सशक्त करने वाला है । इसलिए सनातन परंपरा में भगवान बुद्ध को नारायण का नवम् अवतार माना है । लेकिन अंग्रेजी काल में बौद्ध धर्म को अलग स्थापित करने का अभियान चला । अंग्रेजों ने अलगाव का जो बीजारोपण किया था वह उनके जाने के बाद अब पूर्ण आकार का वृक्ष बन गया । पिछले कुछ वर्षों से इसअलगाव को विषैला बनाने का षड्यंत्र भी किया जाने लगा । इसके लिये नालंदा विश्वविद्यालय के नवनिर्माण के सुखद अवसर को भी नहीं छोड़ा गया । भारत सरकार और बिहार सरकार विदेशी सहायता और सहमति से नालंदा को उसी स्वरूप देने का प्रयास कर रही है जो अतीत में रहा है । नालंदा विश्वविद्यालय का भविष्य में उभरने वाला स्वरूप पूरे संसार केलिये गौरव और प्रसन्नता का क्षण होगा किन्तु उसे कलुषित करने केलिये एक समूह ने सोशल मीडिया और कुछ ट्यूटर एकाउंट में यह प्रचार किया कि नालंदा विश्वविद्यालय को ब्राह्मणों ने विध्वंस किया था । जबकि लगभग सभी ब्राह्मण ग्रंथों में भगवान बुद्ध को नारायण का नवम् अवतार माना है । तब ब्राह्मण भला भगवान बुद्ध के विरुद्ध क्यों होगे? इतिहास की लगभग हर पुस्तक में नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस का विवरण है जिसमें बख्तियार खिलजी का ही नाम है । न केवल नालंदा अपितु मगध और बंगाल में किये गये विध्वंस का भी विवरण है । लेकिन अंग्रेजी काल में उनकी “बाँटो और राज करो” नीत के अंतर्गत कुछ कूटरचित इतिहास लेखन का कुचक्र चला । उसे आज भी कुछ लोग आगे बढ़ा रहे हैं। उसी कू अंतर्गत यह सोशल मीडिया और ट्यूटर पर खेल चल रहा है । भारत की प्रगति अवरुद्ध करने केलिये सामाजिक विभाजन का षड्यंत्र करने वाले कोई मौका नहीं चूकते । पिछले दिनों लोकसभा चुनाव प्रचार का लाभ उठाकर जो जातीय विभाजन का वातावरण बनाया गया उसे और मजबूत करने केलिये नालंदा विश्वविद्यालय के नवनिर्माण अवसर को भी न छोड़ा ।
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