समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 29 जुलाई: लोकसभा के चल रहे मानसून सत्र में फिर एक बार NDA दल के दो सांसदों के विवादित बयान चर्चा का केंद्र बने हैं। केंद्रीय मंत्री और लोजपा (रामविलास) सांसद राजीव रंजन सिंह ‘लल्लन सिंह’ ने कथित तौर पर कहा कि ऑपरेशन सिंदूर में “कई आतंकवादी मारे गए, शहीद हुए” और उन्होंने मौलाना मसूद अज़हर साहब जैसे नाम लेकर आक्रोश को जता दिया। वहीं समस्तीपुर की शांभवी चौधरी ने आतंकवादी हमलों के घटनाक्रम को लेकर ऐसी भूल कर दी कि विपक्ष ने इसे स्क्रिप्ट एरर तक बता दिया।
शांभवी चौधरी संसद में बोलते हुए 2001 के संसद हमले को कांग्रेस सरकार की जिम्मेदारी बता बैठीं, जबकि उस समय NDA सत्ता में थी। बिहार कांग्रेस ने इसका वीडियो साझा करते हुए तीखा तंज लिखा कि “ओह! स्क्रिप्ट फिर से गड़बड़ा गई… अब कोई रीटेक नहीं होगा। RSS कोटे वाली सांसद भूल गईं कि 2001 में संसद हमला भाजपा सरकार के कार्यकाल में हुआ था।”
दोनों घटनाओं ने NDA की सार्वजनिक छवि को झकझोरा है, और विपक्ष अब इन गलतियों को चुनावी मुद्दा बनाने की तैयारियों में जुट गया है।
NDA की सांसद शांभवी चौधरी का संसद में शानदार भाषण!
उन्होंने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया: "विपक्ष का सवाल और दुश्मन देश के नेता का सवाल एक कैसे हो सकता है?"
यह हर भारतीय को सोचना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर कांग्रेस की भाषा पाकिस्तान से क्यों मिलती है। pic.twitter.com/p7AsuKOV8T
— Arun Yadav (@BeingArun28) July 28, 2025
विवाद और कमजोर विपक्षी रुख
मौजूदा चर्चाओं में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन बयानबाजियों के बावजूद भाजपा की तरफ से अब तक कोई स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं आया। शांभवी चौधरी द्वारा 2001 की गलत पहचान, और लल्लन सिंह द्वारा मसूद अज़हर को ‘शहीद’ कह देना, दोनों ही राजनीतिक गलती से कहीं ज्यादा प्रतीत होता है—जिसे विपक्ष ने तुरंत मौक़ा समझ राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की है।
संसदीय मर्यादा पर प्रश्न
लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा की दृष्टि से सांसदों के ऐसे बयानों से संसद की प्रतिष्ठा आहत होती है। सांसदों से अपेक्षित है कि वे संवेदनशील विषयों को संभालकर बोलें, विशेषकर आतंकवाद जैसे मुद्दों पर। जहां एक ओर सरकार आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाती है, वहीं उसके कुछ प्रतिनिधियों के ऐसे बचकाने और नासमझ बयानों से वह संदेश सुर्खियों में आ जाता है।
शांभवी चौधरी और राजीव रंजन सिंह द्वारा दिए गए बयान न केवल राजनीतिक रूप से असंगत हैं, बल्कि जनता के मन में सवाल भी उठाते हैं कि इतने संवेदनशील विषयों पर क्या तैयार स्क्रिप्ट मौजूद थी? क्या यह व्यक्तिगत भूल थी या कमज़ोर पार्टी लाइन-अप का नतीजा? ऐसे समय में भाजपा को स्पष्ट, मजबूत बयान देना चाहिए ताकि यह साबित हो कि ये हल्के बयानों को पार्टी समर्थन नहीं देती, वरना चुनाव पूर्व यह विवाद भाजपा को भारी पड़ सकता है।
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