नई दिल्ली – भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दो महान नायक – पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल – अक्सर इतिहास में एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखे जाते हैं। लेकिन उनके संबंधों की कहानी केवल सहयोग की नहीं, बल्कि असहमति, वैचारिक मतभेद और एक जटिल राजनीतिक साझेदारी की भी है। आज जब भारत की राजनीति में उनके विचारों की पुनर्व्याख्या हो रही है, तो यह जरूरी हो गया है कि उनकी असहमतियों और उनके महत्व को वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से देखा जाए।
पंडित नेहरू जहां आधुनिकता, समाजवाद और वैश्विकता के पैरोकार थे, वहीं सरदार पटेल एक यथार्थवादी, प्रशासनिक दृष्टि से कठोर और राष्ट्रहित में त्वरित निर्णय लेने वाले नेता माने जाते थे। दोनों नेताओं के दृष्टिकोण में यह अंतर स्वतंत्र भारत की दिशा तय करने को लेकर स्पष्ट दिखाई देता था।
नेहरू एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जो वैज्ञानिक सोच, लोकतंत्र और वैश्विक शांति की ओर अग्रसर हो, जबकि पटेल का फोकस था — भारत की एकता, आंतरिक सुरक्षा और प्रशासनिक स्थिरता पर।
देश के बंटवारे और रियासतों के एकीकरण को लेकर दोनों नेताओं के बीच तीखी असहमति सामने आई। हैदराबाद के नवाब को लेकर नेहरू शुरुआत में सैन्य कार्रवाई से हिचकिचा रहे थे, जबकि पटेल ने ‘पुलिस एक्शन’ को अनिवार्य बताया। यह कार्रवाई अंततः सफल रही और हैदराबाद भारत का हिस्सा बना — लेकिन इसने दोनों नेताओं की कार्यशैली में गहरा अंतर स्पष्ट कर दिया।
इसी तरह, नेहरू की कश्मीर नीति को लेकर भी पटेल असहमत थे। ऐसा कहा जाता है कि अगर पटेल को कश्मीर नीति सौंप दी जाती, तो शायद वहां की स्थिति अलग होती।
1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में अधिकांश प्रांतीय समितियों ने सरदार पटेल का समर्थन किया था, लेकिन महात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार पटेल ने नेहरू के लिए रास्ता छोड़ा। यह निर्णय ऐतिहासिक रहा, लेकिन यह भी एक संकेत था कि पार्टी में विचारधारात्मक ध्रुवीकरण गहराने लगा था।
बावजूद इसके, पटेल ने नेहरू के नेतृत्व को कभी सार्वजनिक रूप से चुनौती नहीं दी। दोनों के बीच निजी संवादों में भले ही मतभेद रहे हों, परंतु प्रशासन में पटेल ने नेहरू के साथ मिलकर कार्य किया और सहयोग बनाए रखा।
नेहरू और पटेल का साझा उद्देश्य था – एक मजबूत, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर भारत। लेकिन उस रास्ते को लेकर उनके बीच लगातार वैचारिक टकराव रहा। जहां नेहरू ने पंचवर्षीय योजनाओं और सार्वजनिक क्षेत्र को तरजीह दी, वहीं पटेल निजी उद्यम, उद्योग और कठोर प्रशासनिक नियंत्रण के पक्ष में थे।
आज के राजनीतिक परिदृश्य में नेहरू और पटेल की विरासत को अक्सर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा किया जाता है। कुछ राजनीतिक दल पटेल को “राष्ट्र निर्माता” कहकर नेहरू के योगदान को सीमित करने की कोशिश करते हैं, जबकि अन्य उनके बीच के मतभेदों को अनदेखा कर उन्हें एकता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
हालाँकि, यह समझना ज़रूरी है कि दोनों नेताओं की असहमतियाँ भारत के लोकतांत्रिक चरित्र का प्रमाण थीं। वे एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि भारत की विविधता और विचारधारात्मक बहुलता के प्रतीक थे।
नेहरू और पटेल की साझेदारी को केवल सहयोग या टकराव के तराजू में नहीं तौला जा सकता। उनकी जटिल विरासत, असहमति के बावजूद एक साझा राष्ट्र निर्माण की कहानी है — जहां विचारों की भिन्नता, लोकतंत्र की ताकत बनी और जहां दोनों की भूमिका, भारत को उसकी दिशा देने में निर्णायक रही।
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