समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,19 अप्रैल। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था — सुप्रीम कोर्ट, जो कभी संविधानिक नैतिकता का अंतिम प्रहरी मानी जाती थी, आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ उस पर न्याय की निष्पक्षता में दोहरापन अपनाने के आरोप लग रहे हैं। “एक राष्ट्र, दो न्याय” की भावना को लेकर उठे सवाल अब केवल कानाफूसी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि एक व्यापक जन विमर्श का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
बीते सात वर्षों में देशभर के अलग-अलग राज्यों में 140 से अधिक याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें कुछ अहम सामाजिक व सांस्कृतिक मुद्दों पर न्याय की गुहार लगाई गई। लेकिन परिणाम? न सुनवाई, न अंतरिम राहत, न ही कोई न्यायिक पहल। याचिकाकर्ताओं को केवल अदालत की प्रक्रियात्मक शिथिलता और कानूनी चुप्पी का सामना करना पड़ा।
लेकिन जब एक विशेष पक्ष — शायद बेहतर संपर्क, तेज मीडिया नेटवर्क या सटीक वैचारिक स्थिति के साथ — सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है, तो उसकी सुनवाई तत्काल होती है। अंतरिम आदेश भी मिलते हैं, रिपोर्ट्स पर संज्ञान लिया जाता है, और पूर्ण पीठ सक्रिय हो जाती है। आखिर ये दोहरा मापदंड क्यों?
कई बार जब कोई याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है, तो अदालत यह पूछती है — “आपने पहले हाई कोर्ट का रुख क्यों नहीं किया?” लेकिन वही सुप्रीम कोर्ट तब खुद सीधे सुनवाई करता है जब याचिकाकर्ता ‘अनुकूल पक्ष’ का हो। क्या अदालत के पास कोई गुप्त नियमावली है, जो तय करती है कि किसे तवज्जो मिलेगी और किसे नजरअंदाज किया जाएगा?
यह कोई एकबारगी घटना नहीं, बल्कि एक लगातार दोहराया जाने वाला पैटर्न बन चुका है। हाल ही में मंदिरों के सरकारी अधिग्रहण से जुड़े एक मामले में, 13 वर्षों तक सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “यह मामला हाई कोर्ट में जाना चाहिए।” तो यही तर्क अन्य मामलों पर क्यों नहीं लागू होता?
जब कोर्ट एक पक्ष की अर्जियों को त्वरित प्राथमिकता देता है, वहीं दूसरी ओर चार दशकों से लंबित मामलों पर भी चुप्पी साधे रहता है, तो यह केवल विलंब नहीं, बल्कि न्याय का इंकार है। यह प्रक्रियात्मक खेल नहीं, बल्कि संवैधानिक भरोसे के साथ विश्वासघात है।
आज यह सवाल ज़रूरी है — क्या न्याय अब केवल याचिकाकर्ता की राजनीतिक पृष्ठभूमि, मीडिया कवरेज या जनमत के दबाव पर निर्भर है?
एक मजबूत मांग उठ रही है कि सभी 140+ लंबित मामलों को एक हाई कोर्ट में स्थानांतरित किया जाए — और वहां एक संविधान पीठ का गठन कर छह महीने के भीतर अंतिम निर्णय सुनाया जाए। केवल इसी माध्यम से जनता का न्यायपालिका पर भरोसा बहाल किया जा सकता है।
यह लेख किसी न्यायिक संस्था पर हमला नहीं, बल्कि पुनरुद्धार का आह्वान है। भारत के नागरिक बेहतर के हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना होगा कि क्या वह न्याय का मंदिर बना रहेगा या एक ऐसा संस्थान बन जाएगा जो राजनीति, प्रभाव और सुविधा से संचालित होता है।
Comments are closed.