झेन फकीर कहते हैं कि गुजरना नदी से, लेकिन ध्यान रखना, पानी तुम्हें छूने न पाये। वे इसी बात की खबर दे रहे हैं कि अगर तुम्हें समझ आ जाये साक्षी की, तो तुम गुजर जाओगे नदी से। पानी शरीर को छुएगा, तुम्हें नहीं छू सकेगा। तुम साक्षी ही बने रहोगे।
इस संसार में साक्षी बनना सीखो। थोड़ा— थोड़ा कोशिश करो। राह पर चलते कभी इस भांति चलो कि तुम नहीं चल रहे, सिर्फ शरीर चल रहा है। तुम तो वही हो—न क्यचित गता, न क्यचित आगंता—न कभी जाता कहीं, न कभी आता कहीं। राह पर अपने को चलता हुआ देखो और तुम द्रष्टा बनो। भोजन की टेबल पर भोजन करते हुए देखो अपने को कि शरीर भोजन कर रहा है, हाथ कौर बनाता, मुंह तक लाता, तुम चुपचाप खड़े—खड़े देखते रहो! प्रेम करते हुए देखो अपने को, क्रोध करते हुए देखो अपने को। सुख में देखो, दुख में देखो। धीरे— धीरे साक्षी को सम्हालते जाओ। एक दिन तुम्हारे भीतर भी उदघोष होगा, परम वर्षा होगी, अमृत झरेगा! तुम्हारा हक है, स्वरूप—सिद्ध अधिकार है! तुम जिस दिन चाहो, उस दिन उसकी घोषणा कर सकते हो।
‘मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको नमस्कार है। मेरा कुछ भी नहीं है, अथवा मेरा सब कुछ है—जो वाणी और मन का विषय है। ‘
कहते हैं जनक कि एक अर्थ में मेरा कुछ भी नहीं है, क्योंकि मैं ही नहीं हूं। मैं ही नहीं बचा, तो मेरा कैसा? तो एक अर्थ में मेरा कुछ भी नहीं है, और एक अर्थ में सभी कुछ मेरा है। क्योंकि जैसे ही मैं नहीं बचा, परमात्मा बचता है—और उसी का सब कुछ है। यह विरोधाभासी घटना घटती है, जब तुम्हें लगता है मेरा कुछ भी नहीं और सब कुछ मेरा है।
अहो अहं नमो मलं यस्य मे नास्ति किंचन ।
अथवा यस्य में सर्वं यब्दाङमनसगोचरम् ।।
जो भी दिखाई पड़ता है आंख से, इंद्रियों से अनुभव में आता है, कुछ भी मेरा नहीं है, क्योंकि मैं द्रष्टा हूं। लेकिन जैसे ही मैं द्रष्टा हुआ, वैसे ही पता चलता है, सभी कुछ मेरा है, क्योंकि मैं इस सारे अस्तित्व का केंद्र हूं।
द्रष्टा तुम्हारा व्यक्तिगत रूप नहीं है। द्रष्टा तुम्हारा समष्टिगत रूप है। भोक्ता की तरह हम अलग— अलग हैं, कर्ता की तरह हम अलग— अलग हैं—द्रष्टा की तरह हम सब एक हैं। मेरा द्रष्टा और तुम्हारा द्रष्टा अलग— अलग नहीं। मेरा द्रष्टा और तुम्हारा द्रष्टा एक ही है। तुम्हारा द्रष्टा और अष्टावक्र का द्रष्टा अलग— अलग नहीं। तुम्हारा और अष्टावक्र का द्रष्टा एक ही है। तुम्हारा द्रष्टा और बुद्ध का द्रष्टा अलग—अलग नहीं।
तो जिस दिन तुम द्रष्टा बने उस दिन तुम बुद्ध बने, अष्टावक्र बने, कृष्ण बने, सब बने। जिस दिन तुम द्रष्टा बने, उस दिन तुम विश्व का केंद्र बने। इधर मिटे, उधर पूरे हुए। खोया यह छोटा—सा मैं, यह बूंद छोटी—सी—और पाया सागर अनंत का!
ओशो
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