पार्थसारथि थपलियाल
कुरुक्षेत्र में द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने दुनिया का सर्वोत्तम ज्ञान सारथि रूप में किंकर्तव्यविमूढ़ रथवान युद्धवीर अर्जुन को दिया था। इस ज्ञान को गीता के नाम से जाना जाता है जो महाभारत के भीष्मपर्व का हिस्सा है। उसी कुरु में 14 और 15 जून 2022 को युद्ध नही, मंथन हुआ। यह मंथन देव-दानव समुद्र मंथन से भी भिन्न था। इसमें राक्षस कोई नही था। यह मंडन मिश्र और शंकराचार्य का शास्त्रार्थ भी नही था। यह विद्वदजनों का नक्षत्र मंडल था। कुछ नक्षत्र आचार्य देवगुरु बृहस्पति के समान थे। उनमें से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह माननीय डॉ. मनमोहन वैद्य प्रमुख थे। जिन्हें सुनना एक अद्भुत अनुभव था। यह मंथन विचार केंद्रित था और मंतव्य प्रेरित भी। एक सत्र में उन्होंने लगभग एक घंटे तक जेठ माह की भीषण गर्मी में मधुरवाणी की बासंती बहार से मुग्ध रखा, उनके संबोधन का सार इस क्रम में प्रस्तुत है। उन्होंने अपनी बात इन शब्दों से शुरू की-
कभी यह जानने की कोशिश की, कि भारत का स्व क्या है? हम कौन हैं? कभी अपने गौरव को जानने की कोशिश की? इन बातों पर हम एकमत नही होते। जापान, जर्मनी और इंग्लैंड की द्वितीय विश्व युद्ध मे हार हुई थी। अपने स्वाभिमान से ये सभी देश कुछ ही समय में ताकतवर होकर खड़े हुए हैं। हम अपनी संस्कृति और स्वाभिमान के प्रति लापरवाह रहते हैं। हम अपनी दिशा तय नही कर पाए कि हमारे पास अपना स्व जो है वह ठीक है या वह ठीक है जो कभी समाजवाद, कभी पूंजीवाद, कभी साम्यवाद, और कभी गुटनिरपेक्षता भी एक दिशा बन जाती है। हमने अनुभव से पाया है कि पूंजीवाद और साम्यवाद की आयु सौ वर्ष से अधिक नही होती है। भारत का इतिहास 20 हज़ार साल पुराना है। हमारे शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं। अपने को जानने की आवश्यकता है। हम कौन हैं, इस सब के लिए हमें एक मत होना चाहिए। भारत की शिक्षानीति, अर्थनीति और रक्षा नीति एक होनी चाहिए। भारत मे जबसे मिलीजुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, तब ऐसे ही एक अवसर पर संघ के एक विचारक ने कहा था कि अच्छा होता कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस मिलजुल कर सरकार बना लेते। अपने विचार के पक्ष में उन्होंने कहा था दोनों का चिंतन भारतीय है और दोनों की उपस्थिति अखिल भारतीय है।
डॉ. मनमोहन वैद्य जी ने कहा- भारत के स्व का आधार हैं- भारत की आध्यात्मिक जीवन दृष्टि। इसे समझना चाहिए। एक पुस्तक है-“ग्लोबल पैरासाइट्स”। इसका अर्थ है वैश्विक शोषणकर्ता। इस पुस्तक में लिखा है कोई भी शोषणकर्ता पहले शोष्य (जिसका शोषण करना है) को तंदुरुस्त बनाता है ताकि अच्छी तरह शोषण कर सके। दुनिया के विकसित देश जब विकासशील देशों की सहायता करते हैं तब उनका उद्देश्य यही रहता है। पश्चमी देशों की नियत हिंसा और अत्याचार फैलाने की रही है। वे सबसे पहले ईसाईकरण और उपनिवेश की सोचते हैं। वर्तमान में WTO, IMF और World bank ऐसा ही करते हैं। भारत हज़ारों वर्षों तक एक समृद्ध राष्ट्र रहा है। पहली सदी से 17वीं सदी तक भारत की विकास दर 23 प्रतिशत थी। उस समय अमेरिका और यूरोप को मिलाकर उनकी समस्त विकास दर 2 प्रतिशत थी। भारत नें उपनिवेश की बात नही सोची। भारत ने पूरे विश्व को एक कुटुंब की तरह माना।
भारत विविधताओं का देश है। विविध बोलियाँ/भाषाएं हैं, उपासना में भिन्नताएं है लेकिन भारत का पूरा समाज परस्पर जुड़ा हुआ है। ये विविधताओं का देश हैं भिन्नताओं का नही। भारत की सोच है एक: सद विप्र: बहुदा वदन्ति। भारतीय एक ही सत्य को कई अन्य नामों से भी बताते हैं। इस मान्यता में भारत की सबके लिए समान मानने की दृष्टि है। 1893 में स्वामी विवेकानंद विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने शिकागो गए थे। शिकागो जाने से पहले स्वामी विवेकानंद ने पूरे भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने सनातन के मर्म को समझ था।शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में हर धर्म का अनुयायी अपने धर्म को सबसे महान बता रहा था। हमारा धर्म ही सत्य है। इसका अनुसरण करनेवाले ही स्वर्ग जाएंगे। इसलिये दूसरों को अपने धर्म मे बदलो। भारत का दर्शन “ही” का नही “भी” का है। उनका दर्शन convert कराओ या मार दो का है। इन सब बातों से इतिहास भरा हुआ है। भारत की बसुधैवकुटुम्बकं का दृष्टिकोण जब स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन में व्यक्त किया तो सभी स्तब्ध रह गए।
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