समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 21 सितंबर: भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की एक टिप्पणी ने देशभर में तीखी बहस छेड़ दी है। खजुराहो के जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की कटी हुई मूर्ति को बहाल करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई ने कहा— “जा के अपने भगवान से प्रार्थना करो।” इस बयान के बाद यह सवाल उठने लगे हैं कि यदि प्रार्थना ही समाधान है, तो अदालतों की आवश्यकता क्यों है?
सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की याचिका
16 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के खजुराहो स्थित जावरी मंदिर की भगवान विष्णु की मूर्ति की बहाली से जुड़ी याचिका को खारिज कर दिया। यह मंदिर यूनेस्को द्वारा संरक्षित स्मारकों का हिस्सा है, जिसकी मूर्ति को मुगलों के आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त किया गया था।
याचिकाकर्ता राकेश दालाल ने दलील दी कि यह केवल पुरातात्विक महत्व का मामला नहीं है, बल्कि करोड़ों हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों से भी जुड़ा है। उन्होंने मांग की थी कि पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को निर्देश दिया जाए कि मूर्ति की मरम्मत की जाए।
याचिकाकर्ता की दलील
राकेश दालाल ने कहा कि सरकार और संबंधित विभाग बहाली का कार्य नहीं कर रहे हैं, जिससे भक्तों के पूजा-अर्चना के अधिकार का हनन हो रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य ने इस मामले में कोई जवाब नहीं दिया, जबकि बार-बार शिकायत की गई।
उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक मूर्ति का मामला नहीं है, बल्कि आस्था और आत्मसम्मान का प्रश्न है।
विवादित टिप्पणी और प्रतिक्रियाएँ
सीजेआई बी.आर. गवई की टिप्पणी “भगवान से प्रार्थना करो” को लेकर हिंदू संगठनों और बुद्धिजीवियों ने कड़ी आपत्ति जताई है। आलोचकों का कहना है कि इस टिप्पणी ने हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाई है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यही टिप्पणी किसी अन्य धर्म के अनुयायियों पर की जाती, तो शायद इसका स्वरूप और गंभीर हो जाता। आलोचकों के अनुसार, यह हिंदूफोबिया को सामान्य करने की एक कोशिश है।
धर्मनिरपेक्षता पर बहस
यह घटना भारत की धर्मनिरपेक्षता के मॉडल पर भी सवाल खड़े करती है। अक्सर देखा जाता है कि जब अल्पसंख्यक समुदाय अपमानित महसूस करता है, तो उसकी शिकायतों को गंभीरता से लिया जाता है और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन होते हैं। वहीं, हिंदू अक्सर कानूनी उपायों का सहारा लेते हैं और अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं।
यह असमानता, आलोचकों के मुताबिक, भारतीय लोकतंत्र में एक गहरी खाई को उजागर करती है।
न्यायपालिका की भूमिका पर प्रश्न
कानूनी विशेषज्ञ पूछ रहे हैं कि अगर धार्मिक मामलों में अदालतें केवल प्रार्थना की सलाह देने लगेंगी, तो फिर उनकी भूमिका क्या रह जाएगी? क्या भविष्य में अन्य विवादों—जैसे वित्तीय या कॉर्पोरेट मामलों में—भी पक्षकारों से यही कहा जाएगा कि वे प्रार्थना करें?
आलोचकों का कहना है कि यह रवैया न्यायिक प्रक्रिया की गंभीरता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
निष्कर्ष
सीजेआई की टिप्पणी ने न केवल भक्तों की आस्था को चोट पहुँचाई है, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े किए हैं। यदि अदालतें केवल प्रार्थना करने की सलाह देंगी, तो यह न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
यह मामला इस बात का उदाहरण है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता और न्याय के मानकों को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए जाते हैं। हिंदुओं को अपनी आस्था के लिए अक्सर ताने सुनने पड़ते हैं, जबकि अल्पसंख्यकों की शिकायतों को अधिक सहानुभूति के साथ सुना जाता है।
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