प्रियंका गांधी का ‘क्रैश कोर्स’: जनता से जुड़ाव या महज चुनावी रणनीति?

समग्र समाचार सेवा
वायनाड,29 मार्च।
कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा, जिन्होंने वायनाड उपचुनाव में शानदार जीत दर्ज की, अब एक नई चुनौती को पार करने में जुट गई हैं—मलयालम सीखने की। अपने संसदीय क्षेत्र के दूसरे दौरे के दौरान उन्होंने यह घोषणा की कि उन्होंने एक शिक्षक ढूंढ लिया है और अब वे “थोड़ी बहुत” मलयालम बोल सकती हैं

यह घोषणा जितनी दिलचस्प है, उतनी ही सवालों से घिरी भी। क्या यह कदम जनता से जुड़ने की एक ईमानदार कोशिश है या सिर्फ एक सोची-समझी रणनीति?

प्रियंका गांधी ने खुलासा किया कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए.के. एंटनी ने उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान मलयालम सीखने की सलाह दी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब बिना मलयालम बोले ही वे भारी बहुमत से जीत चुकी हैं, तो अब यह भाषाई जुनून क्यों?

क्या यह क्षेत्रीय संस्कृति से जुड़ने की एक ‘सही समय पर’ अपनाई गई रणनीति है, या फिर यह सिर्फ चुनावी जीत के बाद लोगों से भावनात्मक जुड़ाव बनाने का प्रयास?

वायनाड में एक नए सांस्कृतिक केंद्र के उद्घाटन के दौरान, प्रियंका गांधी ने अपनी दादी इंदिरा गांधी को याद किया और आदिवासी समुदाय के प्रति उनके सम्मान की चर्चा की। उन्होंने बताया कि इंदिरा गांधी को आदिवासी समुदाय से मिले उपहारों को सहेजने की खास आदत थी, जो अब एक संग्रहालय का हिस्सा हैं

लेकिन सवाल यह है कि इंदिरा गांधी की विरासत से जुड़ी यादें क्या प्रियंका गांधी के लिए जनता का भरोसा जीतने के लिए पर्याप्त होंगी?

प्रियंका गांधी की मलयालम सीखने की पहल को लेकर जनता और राजनीतिक विश्लेषकों के बीच मिली-जुली प्रतिक्रियाएं हैं। जहां कुछ इसे जनता से जुड़ने का ईमानदार प्रयास मानते हैं, वहीं कुछ इसे चुनावी राजनीति का एक सोचा-समझा दांव बता रहे हैं।

क्या यह भाषाई जुड़ाव वायनाड के असली मुद्दों—रोजगार, शिक्षा, और बुनियादी ढांचे—के हल की दिशा में कोई ठोस कदम है, या यह केवल एक ‘छवि निर्माण’ का प्रयास है?

अगर राजनीतिक ईमानदारी को भाषाई योग्यता से मापा जाता, तो भारतीय राजनीति में संवाद की खाई कहीं कम होती!

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