*पार्थसारथि थपलियाल
हमारी समृद्ध लोक परम्पराएं भारतीय उन्नत संस्कृति के जीवित प्रमाण हैं। इन परम्पराओं को लोक ने संजोया लोक नें बचाया। जब इंग्लैंड में एक भी स्कूल नही खुला था तब भारत में 7 लाख 32 हज़ार गुरुकुल थे। फरवरी 1835 में थॉमस बिबियन मैकॉले (गवर्नर जनरल की शासकीय परिषद का विधि सलाहकार) ने भारतीय संस्कृति को ध्वस्त करने का जो दस्तावेज बनाया वही भारतीय संस्कृति के विनाश की आधारशिला बना। 1976 में संविधान की प्रस्तावना में किय्या गया हेर फेर हमारी संस्कृति को विद्रुपित करने का भारतीय प्रयास था और 1991 से बाजारवाद ने रही सही कसर पूरी कर दी। हम अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से दूर होते चले जा रहे हैं। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की अमरकृति “भारत भारती ‘ की ये पंक्तियां जागृति के लिए काफी हैं-
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी।
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां।
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े…..
दिनांक 14 सितंबर 2022 को नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रज्ञा प्रवाह प्रतिष्ठान और किताबवाले प्रकाशन समूह की ओर से “लोक परम्पराओं में स्व का बोध ” पुस्तक का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया। पुस्तक का संपादन किया है, विद्वत त्रयी प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला, संवादगुरु, पूर्व कुलपति मा. ला. चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय, प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा, पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय और प्रोफेसर श्रीप्रकाश सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में वरिष्ठ प्रोफेसर ने।
“लोक परम्पराओं में स्व का बोध” पुस्तक के लोकार्पण समारोह में आमंत्रित मुख्य अतिथि थे- श्रीकृष्णपाल गुर्जर, राज्यमंत्री, बिजली और भारी उद्योग, भारत सरकार। उनके साथ मंच पर शोभित थे-प्रज्ञा प्रवाह प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय संयोजक श्री जे.नंदकुमार, प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला, प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा, प्रोफेसर श्रीप्रकाश सिंह और किताबवाले प्रकाशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री प्रकाश जैन।
दीप प्रज्ज्वलन और स्वागत-सम्मान की परंपरा के बाद प्रोफेसर श्रीप्रकाश सिंह ने अतिथियों का वाणी से सम्मान किया। मुख्य अतिथि एवं मंचस्थ महानुभावों नें “लोक परंपरा में स्व का बोध” पुस्तक का विमोचन और लोकार्पण किया। पुस्तक का परिचय दिया प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला नें। उन्होंने पुस्तक के शीर्षक और प्रकाशित लेखों पर विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक में 24 विद्वान लेखकों के 25 लेख हैं मूल रूप से 17 प्रान्तों की लोक परम्पराएं इसमें है संदर्भित प्रसंगों में लगभग पूरा भारत इसमें समाया हुआ है। किताबवाले प्रकाशन ने बहुत कम समय मे उच्चकोटि का प्रकाशन किया है। पुस्तक पर छपी हुई कीमत रुपये 1200/- अंकित है।
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक श्री जे. नंदकुमार ने अपने वत्तव्य में कहा कि महर्षि अरविंद, लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले आदि महान भारतीय चिंतकों ने जिस स्वतंत्रता का भाव जगाया था वह भारतीय संस्कृति के उन्नयन के लिए था। वह स्व का विचार हमारी लोक परम्पराओं में है, उसे जीवित रखने और अपनाने की आवश्यकता है। मुख्य अतिथि श्रीकृष्णपाल गुर्जर ने इस आयोजन से उन्हें मिली प्रसन्नता को प्रकट करते हुए- भारत की गौरवशाली परम्पराओं का उल्लेख किया और कहा कि हमारी लोक परम्पराओं में समाज का जुड़ाव होता था, पारस्परिक प्रेम था, सब गायब होने लगा है।
माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के अगले 25 वर्षों के लक्ष्य की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा हमे प्रयास करना चाहिए हम अपनी बहुमूल्य लोक परंपराओं को जीवन दे सकें। सच बात तो यह है हमनें धर्म छोड़ा और धर्म नें हमें। उन्होंने कहा आशा है यह पुस्तक हमारी लोक परम्पराओं के माध्यम से समाज को जोड़ने का काम करेगी। प्रोफेसर संजीव कुमार ने कहा कि भारतीय संस्कृति की जो खास बात है वह ये कि इसका पूरा लक्ष्य “लोक” है। इसमें गाँव है जंगल हैं, नदियां हैं, पारस्परिकता है और निश्छल जीवन है, उनका व्यवहार पक्ष ही हमारी लोक परम्पराएं है।
अंत मे किताबवाले प्रकाशन की ओर से आभार व्यक्त किया अमित राज जैन ने।
(इस आयोजन के बौद्धिक पक्ष पर आगामी अंक में पढ़ने को मिलेगा)
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