स्व का बोध: स्व को परम्पराओं से जानना (1)

पार्थसारथि थपलियाल

(14 सितंबर2022 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में “लोक परम्पराओं में स्व का बोध” पुस्तक का विमोचन एवं लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ। प्रस्तुत है स्व केंद्रित लोक परंपराओं पर बुद्धिशील वक्ताओं के चिंतन का सार)

अपने स्व को लोक परम्परराओं में खोजें- प्रो.कुठियाला

उस समय प्रधानमंत्री 7 रेस कोर्स के पते पर निवास करते थे। निवास अब भी उसी बंगले में करते हैं, बदल दिया है तो डाक का पता। अब उनका पता है 7 लोक कल्याण मार्ग नई दिल्ली है। रेस कोर्स पर रेस होते हमने नही देखी, प्रधानमंत्री का कार्य लोक कल्याण से जुड़ा है। स्व को समझने का एक उदाहरण है। स्व के बोध को विकसित कर भारत को जाग्रत करने का एक मार्ग है राष्ट्रीय चिंतन, संस्कृति, परम्पराओं का अध्ययन, अनुशीलन करें और स्व से स्वाभिमान भी जगाएं।

यह बात प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के “मन की बात” के पहले एपिसोड (3,अक्टूबर 2014) की है, कार्यक्रम का पहला प्रोड्यूसर होने के नाते मुझे प्रधानमंत्री जी की वह बात याद है जो कहानी उन्होंने भेड़ों के बीच भटके सिंह शावक की सुनाई थी कि भेड़ों के बीच पले शावक ने भेड़ों जैसा आचरण अपना लिया था। एक दिन जब वह अपने जैसे देह धारियों के करीब पहुंचता है तब उसे अपने चरित्र और स्वभाव का पता चलता है। अपने स्वभाव को पहचानना ही स्व मो जानना है। स्व का अर्थ स्वयं को (अपनेपन को) जानना है। सिंह शावक को अपने समुदाय के लोगों (शेरों) ने जगाया। हमारे पास हमारी परम्पराएं हैं। यह मंतव्य विद्वान, चिंतनशील और बुद्धिशील वक्ताओं के विचारों में से निकला अमृत था।

पुस्तक के तीन संपादकों में से एक प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला नें भारत के संदर्भ में हम भारतवासियों के स्व की बात से अपनी बात उठाई। भारत एक प्राणवान देश है, जिसकी संस्कृति प्राचीतम संस्कृतियों में से एक है। हमारे पास मानव सभ्यता का सबसे पुराना लिखित प्रमाण वेद है। आतताइयों और उपनिवेशी विचारधाराओं के विदेशी शासकों ने हमारी संस्कृति विकृत कर दी। कभी द्रविड़ और आर्य शब्दों से दरार डाली, कभी आर्य-अनार्य से। यहां तक कोशिशें की गई कि हमारे जनजातीय समुदाय को हमसे दूर करने के प्रयास हुये। हमारी परम्पराएं जो भौगोलिक स्थिति में विविधता लिए हो सकती हैं लेकिन भिन्नता नही। पर्वतीय, मैदानी रेगिस्तानी पठारी, समुद्र तटीय जन जीवन भिन्न हो सकता है लेकिन हमारी लोक परम्पराएं एकात्मता की ओर ले जाती हैं। भारत के प्रति हमारी प्रतिबद्धता, सम्मान एक जैसा है। ईश्वर में आस्था, लोक कल्याण की भावना, माता, पिता,, गुरु देवता से संबंधी परम्पराएं एक समान हैं। हमारी आस्थाएं हमारे विश्वास हमारी एकात्मता को प्रकट करते हैं।

प्रोफेसर कुठियाला ने बताया कि अंग्रेज़ो ने स्वयं को महान बताने के लिए कुछ ऐसा इतिहास रचा जिससे भारतीयों में हीन भावना बढ़े। जिन लोगों ने 1947 में सत्ता संभाली वे भारत को पश्चिम के चश्मे से देखते रह गए। उस दौर में जो इतिहास लिखाया गया वह भारतीयता से कोशों डोर था। हम उसे ही सत्य मानते चले गए और उसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय सोच कमजोर पड़ती गई। उन्होंने कहा समाज की सोच लोक परम्पराओं से बनती है। जाननेवाले और करनेवाला एक बिंदु पर हों तो जो विचार या मंतव्य ष्ठापित होगा वह समाज के लिए उपयोगी होगा। अपनी ही अपनी सोचने वाला सामूहिक सोच की बात या सामूहिक कल्याण की बात सोच नही सकता। समाज की सोच के कारक बुद्धिशील वर्ग और क्रियाशील वर्ग होता है। ये दोनों वर्ग एक धरातल पर आ जाएं तो समान सोच विकसित होगी।

हमारी लोक परम्पराओं में जो ज्ञान है उसका अनुशीलन होना आवश्यक है। बहुत से लोग लोक परम्पराओं का धंधा कर रहे हैं उन्हें न लोक का ज्ञान है न परम्पराओं को समझते हैं। हमारे लोक संस्कार, लोकव्यवहार, लोक परम्पराएं वैज्ञानिकता को लिए होती हैं। इन परम्पराओं को अलग अलग नामों से पूरे भारत में पाया जाता है। इन परम्पराओं के बारे में हम जानकारी जुटाएंगे तो पता चलेगा कि ये परम्पराएं हमें एकात्मता के सूत्र में बांधती हैं। हमारे पारस्परिक संबंधों में बंधुत्व का भाव भरती हैं।

लोक परम्पराओं में स्व का बोध इस सोच को आगे बढ़ाने में और भारतीय समाज की एकात्मता बढ़ाने में एक मार्गदर्शक भूमिका निभाएगी।

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