पार्थसारथि थपलियाल
(14 सितंबर2022 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में “लोक परम्पराओं में स्व का बोध” पुस्तक का विमोचन एवं लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ। प्रस्तुत है स्व केंद्रित लोक परंपराओं पर बुद्धिशील वक्ताओं के चिंतन का सार)
स्व के बोध से हम भारत की समग्रता से जुड़ते हैं- मान. जे. नंदकुमार
स्व को पहचानना अर्थात स्वयं को पहचानना। औपनिवेशिक मानसिकता वाली शक्तियों ने भारत को योगभूमि की बजाय भोग भूमि बना दिया। भारत का चिंतन इहलोक और परलोक के कल्याण के लिए, जो भारत लोक परम्पराओं में अब भी कुछ दिखाई देता है। राजनीतिक स्वार्थों ने सर्वाधिक हानि हमारी संस्कृति को पहुँचाई है। राजनीति की छाया में पले बढ़े साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने राजदरबार में सत्ता की जय जयकार की, जिसनें सत्ता की हर उस पहल को आगे बढ़ाने में सहयोग किया जो भारतीय संस्कृति को हानि पहुंचाने में सहायक हुई। इस की आड़ में तथा कथित सेकुलरवाद बढ़ा और साथ ही मतांतरण और नक्सलवाद व अन्य भारतीयता विरोधी शक्तियां बढ़ी।
माननीय जे. नंदकुमार भारत के केरल प्रांत के जाये जन्मे हैं। शिक्षा से इंजीनियर हैं, बौद्धिकता से भारतीयता के चिंतक और विचारक। नंदकुमार जी भारत की बौद्धिकता का मंच प्रज्ञा प्रवाह प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय संयोजक हैं। पुस्तक लोकार्पण समारोह में मुख्यवक्ता के रूप में सम्मुख आये। उन्होंने अपनी बात उन चिंतकों की कल्पना के साथ जोड़कर रखी जिन्होंने भारत को जीते जागते राष्ट्र के रूप में देखा था। उपनिवेशिक मानसिकता, संकीर्ण सोच और पाश्चात्य शिक्षा व संस्कृति में पले बढ़े लोग भारत की संस्कृति और उसकी दीर्घ परम्पराओं का संरक्षण नही कर पाए। उन्होंने कहा स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय आदि लोग जिस भारतीयता को चाहते थे क्या वह भारतीयता हमारे पास है? वह हमारा अपना क्यों नही हुआ? सांस्कृतिक एकता एक ऐसा तत्व है जो भारत में सर्वत्र व्याप्त है। उस परंपरा के स्थानीय नाम कुछ हो, लेकिन किसी दूसरे अंचल के व्यक्ति को लगता है ऐसा तो हमारे गाँव में भी होता है। आदमी उससे कनेक्ट होता है। जुड़ता है, ये जुड़ना ही हम में एकात्मता को बढ़ाता है।
श्री जे. नंदकुमार जी ने उदाहरण देते हुए दो घटनाओं का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि एक जनजातीय सम्मेलन 20 वर्ष पहले गोहाटी में आयोजित किया गया। इसमें सभी जनजातियों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था। एक सत्र में इन लोगों के लिए एक प्रश्नावली भी बनाई गई थी जिससे उनकी सोच का पता चल सके। उसमें से ही यकायक 5 प्रश्न दिए गए, जिनका उत्तर उन्हें देना था। प्रश्नों के मूल बिंदु थे- ईश्वर के प्रति उनकी सोच, ईश्वर से उनकी प्रार्थना का भाव, कर्म में विश्वास, धार्मिक आस्था, अन्य धर्मो के प्रति दृष्टिकोण, पेड़ों के प्रति उनकी सोच। यह आश्चर्य की बात है कि सभी उत्तर एक जैसे थे।
ईश्वर ही संसार को चलाता है। उनकी प्रार्थना में ईश्वर से सबके सुखी रहने की कामना होती है। उनका धार्मिक विश्वास है। उनका कहना था जो जैसा कर्म करेगा वैसा ही फल पायेगा। उनका यह मानना है कि सभी धर्म उनके अनुयायियों की आस्था के अनुसार ठीक हैं। पेड़ों की रक्षा की जानी चाहिए। आदि। जब उन लोगों से जानना चाहा कि यह जानकारी उन्हें कहाँ से मिली तो उन्होंने बताया कि लोक विश्वास से उन्हें यह सब पता है यह लोक विश्वास वही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमें पूर्वजों से प्राप्त होता है यही परंपरा है।
दूसरा उदाहरण माननीय जे.नंदकुमार जी ने भोपाल में आयोजित प्रथम लोकमंथन के लिए भूमि पूजन के समय पूजा विधान पर सुनाया। सन 2016 में भोपाल में लोकमंथन आयोजन स्थल पर भूमि पूजन होना था। कार्यकर्ताओं में चर्चा हुई और छत्तीसगढ़ से एक जनजातीय मुखिया को जो जनजातीय पूजा विधान को जानता था, बुलाया गया। नंदकुमार जी बताते हैं कि “वह मुखिया अपनी बोली में क्या बोल रहा था मुझे समझ नही आ रहा था कुछ शब्दों में प्रांतीय नाम थे जैसे कश्मीर, बंगाल आदि। मैंने पास में बैठे स्थानीय कार्यकर्ता से जानना चाहा कि इनकी पूजा में क्या कहा जा रहा है।
उस कार्यकर्ता ने बाद में बताया कि मुखिया दशों दिशाओं के भगवानों को बुला रहा था कि इस कार्य की सिद्धि के लिए यहां आओ।” यह सनातन संस्कृति में ही होता है। यह भारत की परंपरा है। यह भारत का स्व है। कुछ स्वार्थी लोग इस समुदाय को सनातन संस्कृति से अलग करने के प्रयास में रहते हैं। अब जनजातीय समुदाय भी जागरूक हो रहा है। लोग यह भूल जाते हैं कि राष्ट्र रक्षा में जितना योगदान जनजातीय समाज का रहा उतना उसे रेखांकित नही किया गया। औपनिवेशिक शक्तियों को रोकने में, खदेड़ने में उनका बहुत योगदान रहा है। हम भारत की एकता के सूत्रों को ढूंढे उसमें एकात्मता के तत्वों को मजबूत करें। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखकों ने भारतीयता की सुदृढ परम्पराओं के बारे में लिखा है, आपके इर्दगिर्द भी ये परम्पराएं है जो अपनों को अपनो से जोड़ती हैं और स्व के बोध कराती है। इसे समझने की आवश्यकता है।
Comments are closed.