रेवती नक्षत्र – पतन एवं पुनर्प्रतिष्ठा : कहानी मात्र कहानी नहीं !

त्रिलोचन नाथ तिवारी।
प्रत्येक कहानियाँ मात्र कहानियाँ नहीं होतीं! कुछ कहानियाँ, कहानियों के अतिरिक्त भी, कुछ और भी होती हैं और रेवती नक्षत्र की कथा आर्ष भारतीय ज्योतिष की एक महान तथा विशिष्ट घटना को अभिव्यक्त करने वाला रूपक है।

एक सामान्य सी अवधारणा है कि कहानियाँ तो बस कहानियाँ हैं। उनसे मनोरंजन तो प्राप्त होता है, किन्तु इसके अतिरिक्त उनकी अन्य कोई उपादेयता नहीं है। और सौ बार का कहा तो मिथ्या भी सत्य बन कर प्रतिष्ठित होता है। किन्तु जीवन के अंतिम पैड़ी पर उतर कर देखें तो कवि की यह भावाभिव्यक्ति सत्य का तिलक करती दिखेगी :

हर जुलूस कुछ नारों का अनुगामी है, भीड़ों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता।
सबसे अधिक सुनी जाती हैं अफवाहें, बहुमत में सच का अस्तित्व नहीं होता॥

हमारे पुराणों में बहुत सी कहानियाँ हैं। रोचक भी, शिक्षाप्रद भी, ज्ञानपरक भी। ऐसी ही एक कहानी है रोहिणी-पतन की। वह कहानी सुनाऊँ?

प्राचीन समय की बात है।

कहानियाँ ऐसे ही तो प्रारम्भ होती हैं!

हाँ, तो प्राचीन समय की बात है, ऋतवाक् नाम के एक धर्मात्मा मुनि थे। युवावस्था व्यतीत होने पर उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु पुत्र-प्राप्ति के उपरान्त ऋतवाक् तथा उनकी पत्नी को धर्मकार्य से अरुचि हो गई। दंपत्ति रोग-शोक से ग्रस्त भी रहने लगे। क्रोध तथा लोभ ने उन्हें आवृत्त कर लिया। पुत्र भी कुछ बड़ा हुआ तो उद्दण्ड हो गया। भले लोगों को पीड़ित करने में उसे आनंद आता था।

मुनि का स्वभाव-परिवर्तन काल-वश था, नैसर्गिक नहीं। अतः वे चिन्तित हुये।

मनुष्य ने सदा ही परिस्थितियों की विडम्बना का निराकरण पाने हेतु ज्योतिष एवं ज्योतिषियों का आश्रय लिया है। मुनि ऋतवाक् भी अपने समय के महान ज्योतिषी महर्षि गर्ग की शरण में पहुंचे।

महर्षि गर्ग ने मुनि ऋतवाक् के पुत्र के जन्मांग का अध्ययन कर के यह बताया कि जो कुछ हो रहा है उसमें मुनि या उनकी पत्नी का कोई दोष नहीं बल्कि इन सभी घटनाओं तथा आयत्त प्रवृत्तियों का हेतु मुनि के पुत्र का रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण में जन्म लेना है। रेवती नक्षत्र का अंतिम चरण ‘गण्डान्त’ होता है और ‘गण्डान्त‘ की निन्दित वेला में जन्म लिए व्यक्ति की न मात्र प्रवृत्तियाँ दूषित होती हैं, वह परपीड़क भी होता है तथा ऐसे शिशु के जन्मोपरांत यदि ‘गण्डान्त’ नक्षत्रों की विधिवत शान्ति न करायी जाय तो यह माता-पिता हेतु भी अशुभ फलों का हेतु बनता है।

मुनि ऋतवाक् की प्रवृत्ति में क्रोध तो समा ही चुका था, क्रोध के वशीभूत मुनि ने रेवती नक्षत्र को ही शापित कर दिया,”महर्षि गर्ग! मेरा एक ही तो पुत्र है! वह भी वृद्धावस्था में प्राप्त पुत्र! और गण्डान्त काल में रेवती नक्षत्र के अंतिम चरणों में उत्पन्न होने के कारण उसमें भी ऐसी नीचता एवं दुष्टता के दुर्गुण आ गये तो यह सब रेवती नक्षत्र के कारण हुआ है! अतः मैं रेवती नक्षत्र को यह शाप देता हूँ कि वह तत्काल नक्षत्र-मण्डल से च्युत हो जाय!”

मुनि का कथन समाप्त होते ही रेवती नक्षत्र तत्क्षण आकाश से पतित हो कर ‘कुमुद गिरि’ पर आ गिरा। रेवती नक्षत्र के उस पर्वत पर पतित होने के कारण उस पर्वत का नाम ‘रैवतक पर्वत’ प्रसिद्ध हुआ। रेवती की कान्ति एक सरोवर में परिवर्तित हो गयी और उसी सरोवर में एक उत्पल-पत्र पर एक दिव्य कन्या क्षुधा के कारण रोती तथा अपने वाम-पद के अंगुष्ठ को चूसती हुई प्रमुच नाम के महातपस्वी मुनि को दिखी जो कुमुद गिरि पर तप किया करते थे। मुनि प्रमुच द्रवित हो कर उस कन्या को सरोवर से निकाल कर अपने आश्रम ले आये तथा उसका पालन अपनी पुत्री की भांति करने लगे। उस कन्या का नाम भी उन्होंने रेवती ही रखा।

काल-क्रम से रेवती युवावस्था को प्राप्त हुई और संयोग से एक दिन दुर्गम नाम का राजा मृगया करते हुये मुनि प्रमुच के आश्रम जा पहुँचा। रेवती ने दुर्गम को देखा, दुर्गम ने रेवती को देखा और इस देखा-देखी में अनंग ने दोनों को देखा। परिणाम वही हुआ जो मदन-शर वेधित युगल का होता है।

वह काल-खण्ड अभी धर्म-च्युत नहीं हुआ था। रेवती ने दुर्गम से स्पष्ट कह दिया कि मेरे पालक पिता की अनुमति के बिना कुछ संभव नहीं है। दुर्गम ने मुनि प्रमुच से रेवती के साथ परिणय की अभिलाषा व्यक्त की और प्रमुच को अपनी पालित कन्या हेतु दुर्गम से श्रेष्ठ वर जुटता ही कहाँ? उन्होंने भी सहमति दे दी।

किन्तु रेवती ने बनते कार्य में स्वयं अड़ंगा डाल दिया। रेवती ने कहा कि वह विवाह तभी करेगी जब चन्द्रमा रेवती नक्षत्र में हो।

अब रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा? रेवती नक्षत्र तो नक्षत्र-मण्डल से पतित हो चुका था! तब रेवती ने अपने पिता से कहा कि यदि एक ऋषि ने अपने क्रोधवश अकारण ही रेवती को पदच्युत कर दिया तो आप भी उतने ही महान ऋषि हैं, आप क्या उसे पुन: उसका स्थान नहीं दिला सकते?

पुत्री के विवाह हेतु मुनि प्रमुच ने असाध्य-साधन किया। अपने तपोबल से उन्होंने रेवती नक्षत्र को पुनः नक्षत्र-मण्डल में प्रतिष्ठित किया तथा चन्द्रमा द्वारा रेवती नक्षत्र के भोग-काल में उन्होंने अपनी पालित कन्या रेवती का कन्यादान राजा दुर्गम को कर दिया।

कन्यादान के उपरान्त मुनि प्रमुच ने राजा दुर्गम से कहा,”राजन! मैं अपने तपोबल का अधिकांश तुम्हारे और रेवती के विवाह हेतु रेवती नक्षत्र को पुनः नक्षत्र-मण्डल में स्थापित करने में व्यय कर चुका किन्तु जो कुछ तपोबल अवशिष्ट है उसके द्वारा तुम्हें मैं कोई वर देना चाहता हूँ। उस वर को तुम कन्या का यौतुक समझ लेना। माँगो! क्या माँगते हो?

राजा दुर्गम मुनि प्रमुच की तप-शक्ति देख चुका था और वह स्वयं स्वायम्भुव मनु के वंश में उत्पन्न एक प्रतापी राजन्य था। उसने मुनि प्रमुच से कहा,”मुनिवर! मैं स्वायम्भुव मनु से चले आ रहे उस कुल का प्रतिनिधि हूँ जिसमें मनु होते आये हैं और जिनके नाम पर मन्वन्‍तर चले हैं। मेरी यह कामना है कि रेवती के गर्भ से मेरा जो पुत्र उत्पन्न हो वह नया मनु बने तथा उसके नाम पर भी एक नया मन्वन्‍तर प्रचलित हो।”

प्रमुच ने वर दिया।
दुर्गम तथा रेवती का वही पुत्र पराक्रमी रैवत हुआ जो पंचम मनु-पद पर सुशोभित हुआ और उसी के नाम पर पाँचवाँ मन्वन्‍तर रैवत-मन्‍वन्‍तर के नाम से जाना जाता है। उस मन्‍वन्‍तर में इंद्र के पद पर ‘विभु’ तथा सप्तर्षियों के पद पर क्रमशः उर्ध्वबाहु, सोमनंदन, हिरण्यरोम, अत्रिकुमार सत्यनेय, देवबाहु, वेदशिरा, तथा यदुध्र प्रतिष्ठित थे। इसी मन्‍वन्‍तर में शुभ्र नामक ऋषि की पत्नी तपसी विकुण्ठा के गर्भ से उत्पन्न वैकुण्ठ ने अपने नाम पर वैकुण्ठ नाम का नगर बसाया जो कालांतर में चाक्षुष मनु के पुत्र महाराज अत्यराति (अत्यराति जानन्तपति) की राजधानी बना जिसे पाश्चात्य इतिहासकार आर्मीनिया के शासक अर्राट के नाम से उल्लिखित करते हैं।

अब कहानी तो कहानी है। और इस कहानी का तो आदि से अंत तक एक गल्प से अधिक कुछ प्रतीत ही नहीं होता। भला नक्षत्र भी कहीं धरती पर गिरते हैं? और यदि गिरें तो क्या यह धरती बचेगी? और पुनः नक्षत्र को नक्षत्र मण्डल में स्थापित भी कर देना? गल्प है! गल्प है! गल्प है!

नहीं! गल्प नहीं है! क्योंकि कुछ कहानियाँ मात्र कहानियाँ नहीं होतीं! कुछ कहानियाँ, कहानियों के अतिरिक्त भी, कुछ और भी होती हैं और यह कथा आर्ष भारतीय ज्योतिष के एक महान तथा विशिष्ट घटना को अभिव्यक्त करने वाला रूपक है।

प्रथम तो यह जान लें कि “गण्डान्त” क्या है? मुल्ला नसीरूद्दीन के बहाने ज्योतिष पर जो कुछ अल्प-मात्रा में चर्चा हुई थी उसमें यह स्पष्ट किया गया था कि राशियों तथा नक्षत्रों के विभाजन में तीन ऐसे बिन्दु हैं जो एक साथ दो राशियों तथा दो नक्षत्रों के भी सन्धि-स्थल हैं। और वे बिन्दु हैं मेष राशि का आदि बिन्दु जो मीन राशि तथा मेष राशि का सन्धि-बिन्दु होने के साथ रेवती तथा अश्विनी नक्षत्रों का भी सन्धि-बिन्दु है। दूसरा ऐसा ही सन्धि-स्थल है कर्क राशि तथा सिंह राशि का सन्धि-बिन्दु जो आश्लेषा तथा मघा नक्षत्रों का सन्धि-बिन्दु है तथा तीसरा है वृश्चिक तथा धनु राशियों का सन्धि-बिन्दु जो ज्येष्ठा तथा मूल नक्षत्रों का भी सन्धि-बिन्दु है। यह तीनो संधियाँ ‘गण्डान्त’ कही जाती हैं।

‘गण्ड’ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसे गाँठ से समझ सकते हैं। तिथि, लग्न व नक्षत्र का कुछ भाग गण्डान्त कहलाता है। अतः कुछ तिथियाँ, कुछ लग्न राशियाँ एवं कुछ नक्षत्र गण्डान्त माने जाते हैं। वैसे तो नक्षत्र गण्डान्त को ही विशेष प्रभावशाली माना जाता है किन्तु गण्डान्त तीनों ही अशुभ माने जाते हैं।

पूर्णिमा, पंचमी व दशमी तिथि की अन्त की एक घटी, एवं प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी तिथि की प्रारम्भ की एक घटी अर्थात तिथि सन्धि की दो घटियाँ तिथि गण्डान्त कहलाती हैं। मीन लग्न के अन्त तथा मेष के प्रारम्भ की आधी घटी, कर्क लग्न के अंत व सिंह लग्न के प्रारम्भ की आधी घटी, वृश्चिक लग्न के अन्त एवं धनु लग्न की आधी-आधी घटी की अवधि लग्न गण्डान्त कहलाती हैं जो नक्षत्र गण्डान्त से संश्लिष्ट हैं। रेवती की अंतिम दो घटी तथा अश्विनी की प्रारंभिक दो घटी अर्थात् मीन तथा मेष की सन्धिकाल की चार घटियाँ, अश्लेषा नक्षत्र की अंतिम दो घटी तथा मघा की प्रारंभिक दो घटी अर्थात् कर्क तथा सिंह राशि के सन्धिकाल की चार घटियाँ, तथा ज्येष्ठा की अंतिम दो घटी तथा मूल नक्षत्र की प्रारंभिक दो घटी अर्थात् वृश्चिक तथा धनु राशि के सन्धिकाल की चार घटियाँ नक्षत्र गण्डान्त कहलाती है। एक घटी का मान २४ मिनट तुल्य होता है। गण्डान्त के इस अवधि-मान में मतभेद भी हैं।

किन्तु वास्तव में शुद्ध शब्द है खण्डान्त! भचक्र के वे बिन्दु, जहां नक्षत्रों तथा राशियों के समेकित पूर्णांश खण्डों का अन्त होता है, वही बिन्दु खण्डान्त या गण्डान्त कहे गये। मेष से कर्क तक का भचक्र सृष्टि-खण्ड है, सिंह से वृश्चिक तक स्थिति-खण्ड तथा धनु से मीन तक का भाग संहार-खण्ड!

सन्धियाँ और संक्रमण सदैव असमंजसपूर्ण होते हैं और इसी कारण हानिकारक, कष्टप्रद तथा अशुभ माने जाते हैं। ऋतुओं के सन्धिकाल में रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है, शासन-सत्ता का सन्धि-काल किंकर्तव्यविमूढ़ता को जन्म देता है तथा जनता हेतु कष्टप्रद होता है, मार्गों के सन्धि-स्थल भटकाव की आशंका उत्पन्न करते हैं।

यही कारण है कि ज्योतिष में भी इन तीन विशिष्ट सन्धिकालों में अर्थात् जब चंद्रमा इन गण्डान्त नक्षत्रों रेवती, अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा या मूल में होता है, तब जातक का जन्म स्वयं उसके तथा उसके परिजनों हेतु अशुभ माना गया है। किन्तु यहाँ हम फलित ज्योतिष के सूत्रों का उद्घाटन नहीं करने जा रहे प्रत्युत एक कहानी के निहितार्थ खोजने का प्रयास कर रहे हैं।

सर्वप्रथम तो यह कहानी इस तथ्य को स्पष्ट कर रही है कि रैवत मन्‍वन्‍तर काल से पूर्व ही भारतीय ज्योतिष के विद्वान राशियों की अवधारणा को अंगीकृत कर चुके थे अन्यथा गण्डान्त की अवधारणा का कोई हेतु ही न होता! गण्डान्त का तात्पर्य ही राशियों तथा नक्षत्रों के एक साथ समापन या एक बिन्दु पर सन्धि-गत होना है। और इस कहानी का उल्लिखित यह काल-खण्ड कितना पुरातन है यह पुराणों में उल्लिखित इसी गणना से स्पष्ट है कि मन्‍वन्‍तर एक कल्प का चतुर्दश खण्ड है और एक कल्प में चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष होते हैं तो एक मन्‍वन्‍तर लगभग तीन लाख आठ हजार छह सौ वर्षों का हुआ। वर्तमान में सप्तम, वैवस्वत नाम का मन्‍वन्‍तर चल रहा है जिसके सताईस चतुर्युग पूर्णतः व्यतीत तथा अठाईसवें चतुर्युग के भी तीन युग व्यतीत हो चुके हैं तथा चतुर्थ भाग कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है।

यदि यह संख्या अतिशयोक्ति भी मान ली जाय, तब भी इसकी प्राचीनता में कोई संशय इस कारण भी नहीं है कि जिस समय की घटना इस कथा में अभिव्यक्त है उस समय ऐसे अनेक क्षेत्र बृहत्तर भारत के अङ्ग थे जो आज के पाश्चात्य देश हैं। तो क्या यह मानने का कोई औचित्य है कि भारतीय ज्योतिष में राशियों की अवधारणा एक उधार ली हुई अवधारणा है?

सत्य यह है कि राशियों की अवधारणा तथा उनके प्रचलित नाम ज्योतिष के अन्यान्य तथ्यों की ही भाँति जगत को भारतीय ज्योतिष का ही अवदान हैं। हमसे ही प्राप्त को पुनः हमें प्रदान करने का पाश्चात्य-दंभ वृथा है किन्तु यह भी सत्य है कि जब हम स्वयं ही अपने ज्ञान-गरिमा के प्रति सजग तथा सत्यनिष्ठ नहीं रहे तो अन्यों को दोष भी क्या और क्यों दें?

इस कहानी के भी दो भाग हैं। एक तो रेवती का पतन, और दूसरा रेवती का नक्षत्र-मंडल में पुनर्स्थापन। तथा प्रतीत होता है कि कहानी के दोनों भाग प्रारम्भ में एक साथ प्रचलित नहीं थे। प्रथम भाग प्रथम प्रचलित हुआ और उत्तरार्ध बाद में जोड़ा गया।
वास्तव में हुआ क्या होगा?

हुआ यह होगा कि राशियों तथा नक्षत्रों के सामंजस्य निरूपण की तथा नक्षत्र-मण्डल के आदि बिन्दु निर्धारण की प्रक्रिया में जब बसंत-विषुव के साम्पातिक बिन्दु के स्थान पर, जो कि रेवती नक्षत्र में रहा होगा, अश्विनी नक्षत्र एवं मेष राशि के आदि बिन्दु को गणना हेतु प्रारम्भिक बिन्दु स्वीकृत करने के तर्क-वितर्क चल रहे होंगे उस समय गर्ग ऋषि के साथ मुनि ऋतवाक् अश्विनी के आदि बिन्दु को गणना हेतु आदि बिन्दु मानने के प्रबल पक्षधर रहे होंगे। कुमुद गिरि पर वह संगोष्ठी संपन्न हुई होगी जिसमें विद्वानों ने तर्क-वितर्क, प्रश्नोत्तर, शंका-निरसन आदि के पश्चात यह स्वीकार कर लिया होगा कि नक्षत्र-आरम्भ अब अश्विनी नक्षत्र तथा मेष राशि के आदि बिन्दु से ही मान्य होगा। उस संगोष्ठी में सबसे प्रबल तर्क रहे होंगे मुनि ऋतवाक् के, और ज्योतिषीय गणना में रेवती के महत्व का यह निरसन लोक में एक अलंकारिक तथा अतिरंजित कथा के माध्यम से प्रचारित किया गया होगा। वैसे ही जैसे इंग्लैण्ड तथा ऑस्ट्रेलिया के मध्य २९ अगस्त १८८२ को हुई इंग्लैण्ड की पराजय के पश्चात इंग्लैण्ड के एक समाचार-पत्र ‘द स्पोर्ट्स टाइम्स’ ने एक अतिरंजित समाचार प्रकाशित कर दिया — “२९ अगस्त १८८२ को इंग्लिश क्रिकेट की ओवल में मृत्यु हो गई। खेद के साथ यह सूचित करना है कि अंतिम संस्कार के पश्चात भस्मावशेष ऑस्ट्रेलिया ले जाया जाएगा।” और यह अतिरंजित वाक्य अब तक इंग्लैण्ड तथा ऑस्ट्रेलिया के मध्य होने वाली ‘द एशेज’ शृंखला की धुरी बना हुआ है।

रेवती का पतन हो गया!

किन्तु प्रश्न यह उठा कि जब रेवती नक्षत्र-मण्डल से च्युत हो गया तो क्या अब नक्षत्रों की संख्या में एक नक्षत्र की न्यूनता आ गई?

प्रश्न विकट था, क्योंकि प्रचलित की गई कथा का उद्देश्य यह नहीं था कि अब रेवती को नक्षत्र-मण्डल का भाग न माना जाय बल्कि उसका उद्देश्य मात्र यह था कि रेवती नक्षत्र अब नक्षत्र-मण्डल का प्रारम्भिक बिन्दु नहीं माना जायेगा। किन्तु रेवती-पतन की कथा से जो भाव प्रकट होता था वह यही व्यक्त करता था कि रेवती अब नक्षत्र-मण्डल का भाग ही नहीं है। इस भ्रम का निराकरण आवश्यक था, किन्तु कैसे?

कंटकों को निकालने हेतु कंटक का ही प्रयोग होता है, विष का उपचार प्रतिविष द्वारा होता है तो कहानी से उपजे भ्रम का निवारण भी किसी कहानी को ही करना होगा यह निश्चित था, किन्तु कहानियों को गढ़ने हेतु भी कोई घटना तथा तत्संबंधित पात्र तो उपलब्ध हो!

वह घटना और पात्र उपलब्ध हुये प्रमुच की पालिता कन्या रेवती के राजा दुर्मद के विवाह द्वारा तथा पराक्रमी रैवत के मनु पद पर आसीन होने द्वारा। कहानी आगे बढ़ी और “रेवती नक्षत्र को पुनः नक्षत्र-मण्डल में स्थान मिल गया” यह लोक में पुनः स्वीकृत हो गया। एक कहानी के पूर्वांश ने जो भ्रम उत्पन्न किया था, वह उसी कहानी के उत्तरांश द्वारा निरसित कर दिया गया। इस पूरे घटना-क्रम में चौदह से इक्कीस वर्ष, एक कन्या के जन्म से लेकर उसके विवाह तक की अवधि लग गयी, और यह तो निश्चित ही है कि इस कहानी का काल-खण्ड रैवत मन्‍वन्‍तर से पूर्व का है।

जो विद्वान् राशियों को पाश्चात्य देशों का अवदान मानते हैं, विशेष कर बेबीलोन से आयातित अवधारणा मानते हैं, उनको यह ज्ञात ही नहीं कि बेबीलोन चाक्षुष मनु के ही तृतीय पुत्र महाराज उर का ही साम्राज्य रहा है जिसे पाश्चात्य इतिहास ‘उर डायनेस्टी ऑफ़ एलाम’ के नाम से स्मरण करता है। चाक्षुष मनु के छः पुत्र अत्यराति जानन्तपति, अभिमन्यु, उर, पुर, तपोरत तथा सुद्युम्न में से ही प्रथम पांच क्रमशः आर्मेनिया के अर्राट (अत्यराति), यूनान के मेम्नोन-मैन्यों (अभिमन्यु), एलाम और बेबीलोनिया के उर, पर्शिया के संस्थापक पुर, तथा तपूरिया के तपोरितेई (तपोरत) हैं, जिन्हें चाक्षुष मनु के पाँच सर्वजयी पुत्रों के रूप में जाना जाता है। महाराज उर के द्वितीय पुत्र ही महर्षि अंगिरा हैं।

शब्दों पर ध्यान दें तो ऋतवाक् तथा प्रमुच नाम भी बहुत अर्थ-संपन्न हैं। ऋत अर्थात् सत्य, ऋतवाक् अर्थात् सत्यवक्ता! और मुच् धातु में क्त् प्रत्यय जुड़ कर बना है मुक्त! प्रमुच का अर्थ हुआ मुक्तिदाता! ऋतवाक् ने जो कहा वह सत्य था, किन्तु उससे उत्पन्न भ्रम से मुक्त किया प्रमुच ने।

निष्कर्षतः, कहानियाँ तो बस कहानियाँ होती हैं यह सत्य है, किन्तु यह भी सत्य है कि प्रत्येक कहानी मात्र कहानी ही नहीं होती। कुछ कहानियाँ हमारे इतिहास का शिलालेख भी हैं, किन्तु उनको पढ़ने-सुनने और समझने के लिये हमें अपने ही सत्य से आँखें चुराने तथा उसे मिथिहास मानने की प्रवृत्ति को त्यागना होगा। पाश्चात्यों द्वारा हमारी कहानियों को मिथिहास कहा जाना तो उनका छल है, किन्तु जिन कहानियों को पाश्चात्यों द्वारा गल्प कह कर, मिथिहास कह कर अवहेलित किया जाता है, उन पर हमें तो विश्वास होना चाहिये क्योंकि वे हमारी हैं, हमारी अपनी! इतना अवश्य है, कि उनके शब्दों मात्र पर नहीं, उनमें प्रच्छन्न तथ्यों पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करना होगा। स्तुति, निंदा, परकृति और पुराकल्प की शैली, जो भारतीय साहित्य की अपनी विशिष्ट शैली है उसमें अर्थवाद की खोज करनी होगी। मीमांसकों से सीखना होगा कि विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध तथा अर्थवाद की लेखन शैली और उसकी सुषमा क्या है? पाणिनि तथा वररुचि से संस्कृत शब्दों के वास्तविक अर्थ पूछने होंगे, अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना का अंतर तथा रूपकों, उदाहरणों तथा प्रतीकों का निहितार्थ समझना होगा।

क्योंकि…
एक घटना से नहीं बनती कहानी,
हर कहानी में कई इतिहास होते हैं॥

टिप्पणी :

पश्चाभिगमन के कारण वसन्‍त विषुव के एक नक्षत्र से पार्श्व के नक्षत्र तक पहुँचने में लगभग (21630/27= 801) से (25690/27 = 951) वर्ष तक लगते हैं।
इस वर्ष ऐसा संयोग हुआ है कि फाल्गुन पूर्णिमा वसन्त विषुव के दिन ही पड़ रही है।

हमारे कालखण्ड में वसन्‍त विषुव के दिन सूर्य उत्तर भाद्रपद नक्षत्र की सीध में उदित होते हैं।
✍🏻त्रिलोचन नाथ तिवारी

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