
जिया मंजरी।
जो कांग्रेस पार्टी दशकों पूर्व मुस्लिम लीग के विरोध में रही हो क्या आज मुस्लिम प्रेम के चलते खुद को ही मुस्लिम लीग में बदल रही है? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि एक समय कांग्रेस को ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता था और आज वह मुस्लिम परस्ती की मिसाल बनती जा रही है।
याद कीजिये जब पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। उनका यह वक्तव्य वृहद् परिपेक्ष्य में था जिसमें जैन, बौद्ध, सिख इत्यादि सभी अल्पसंख्यक आते किन्तु कांग्रेस के ही मुस्लिम परस्त नेताओं ने मीडिया में इसकी व्याख्या ऐसे कि मानो पूर्व प्रधानमंत्री देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का बता रहे हों। उनके इस वक्तव्य को बाद में कैसे राजनीतिक रूप से भुनाया गया यह सभी को ज्ञात है।
खैर, मैं इसकी राजनीति में नहीं पडूँगी क्योंकि राजनीति साम-दाम-दंड-भेद से चलती है और इसमें कोई बुराई भी नहीं। इसके बाद लगातार दो लोकसभा चुनावों में अपने राजनीतिक इतिहास के निम्नतम स्तर पर खड़ी कांग्रेस की आन्तरिक विवेचना में भी यह बात उठी कि कांग्रेस को मुस्लिम परस्त पार्टी होने का खामियाजा उठाना पड़ा है।
हालांकि गुलाम नबी आजाद, राशिद अल्वी जैसे वरिष्ठ मुस्लिम कांग्रेस नेता तो वर्तमान नेतृत्व से इसलिए भी असंतुष्ट थे क्योंकि उन्हें लगता था कि पार्टी ने ठीक ढंग से मुस्लिमों को भरोसे में नहीं लिया और इसी कारण मुस्लिमों के वोट बंटने से भाजपा को उसका सीधा लाभ मिला। इन नेताओं के दावों पर बहस की जा सकती है किन्तु कांग्रेस की वर्तमान छवि वास्तव में ऐसी बन चुकी है मानो वह मुस्लिम परस्ती की जीती-जागती मिसाल हो। मुझे याद नहीं कि इससे पहले किसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी पर किसी एक कौम को आश्रय देने के प्रश्न उठे हों। भारतीय जनता पार्टी भी हिंदुत्व की राजनीति करती है लेकिन उसके ‘सबका साथ-सबका विकास’ के मन्त्र ने मुस्लिमों को भी जोड़ा है। कांग्रेस इस मामले में अभागी है कि उसकी समभाव वाली राजनीति को मुस्लिम परस्ती ने कहीं का नहीं छोड़ा है।
ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है जहाँ अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने कहा है कि पार्टी ने प्रदेश में चल रहे दो लाख से अधिक मदरसों को चिन्हित किया है जहाँ वह उलेमाओं से सतत संपर्क में रहेगी। पार्टी उन उलेमाओं से मुस्लिम समाज की आवश्यकताओं को समझेगी और उनके मुद्दों को अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल करेगी। शाहनवाज आलम का कहना है कि प्रदेश के मुस्लिम मतदाता का प्रियंका गाँधी में विश्वास है क्योंकि पार्टी ने सीएए विवाद के समय मुस्लिम समाज का साथ नहीं छोड़ा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी अल्पसंख्यों को साधने की बात जब-तब करते दिख जाते हैं। यानि उत्तर प्रदेश में अपनी खोई राजनीतिक जमीन पाने के लिए कांग्रेस को मुस्लिम वोट बैंक का ही सहारा है।
इसी प्रकार पिछले वर्ष राजस्थान में कांग्रेसनीत सरकार ने मदरसों के उलेमाओं की वेतनवृद्धि कर मुस्लिम समाज को साधने का काम किया। असम में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन किया ताकि राज्य के मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में मोड़ा जा सके। वहीं बंगाल में पार्टी ने इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ गठबंधन किया। अब दोनों राज्यों में कांग्रेस की हालत क्या हुई यह बताते की जरुरत नहीं है। इससे पहले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी भी मुस्लिम वोटों की रणनीति के तहत केरल के वायनाड से चुनाव लड़ चुके हैं।
एक खबर यह भी है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेसनीत सरकार कोरोना महामारी से अनाथ हुए बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाएगी किन्तु यह पढ़ाई निजी मिशनरी स्कूलों में होगी। उधर पंजाब की कांग्रेस सरकार मलेरकोटला को अल्पसंख्यक जिला बनाकर मुस्लिमों को सन्देश दे ही चुकी है। अन्य राज्यों में भी स्थिति भिन्न नहीं है। कुल मिलाकर कांग्रेस चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में अपने मुस्लिम एजेंडे से पीछे हटने को तैयार नहीं है। अब इसे पार्टी की मजबूरी कहें या हिंदूवादी राजनीति के उभार से उपजी हताशा, कांग्रेस जानकर भी सुधरने को तैयार नहीं है।
हाल ही में कश्मीर में धारा 370 की पुनः बहाली को लेकर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का बयान ख़ासा विवादित रहा। इस मुद्दे पर भी पार्टी ने वही प्रतिक्रिया दी जो मुस्लिम समाज को रुचिकर हो।
ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस मुस्लिम परस्ती क्यों करती है? इसका सीधा का जवाब है कि हमारे देश में ऐसी धारणा बना दी गई है कि मुस्लिम समाज चुनावों में एकमुश्त वोट करता है और चूँकि हिन्दू वोट बंटे होते हैं तो ऐसे में जिसके पक्ष में मुस्लिम वोट कर दें उसकी जीत पक्की मानी जाती है।
हालांकि इस तथ्य में मुझे कोई सत्यता नहीं दिखती क्योंकि यदि ऐसा होता तो उत्तर प्रदेश के देवबंद में कांग्रेस का मुस्लिम प्रतिनिधि चुना जाता। यह एक मानसिकता है जिसका कोई आधार नहीं है। फिर भाजपा के राष्ट्रव्यापी उभार के बाद जिस हिंदुत्ववादी राजनीति का उभार हुआ है उससे भी कांग्रेस को मुस्लिम परस्ती पर आना पड़ा है। हालांकि अब मुस्लिम समाज समझदार हो गया है और वह कांग्रेस के बहकावे में नहीं आता लेकिन कांग्रेस की मुस्लिम वोट की चाह ने इसे मुस्लिम लीग का नया संस्करण बना दिया है जो सत्ता के लिए देश विरोधी गतिविधियों पर भी आमादा रहती है।
कांग्रेस के इस कृत्य से मुस्लिम समाज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है। मुस्लिम समाज को अब यह तय करना है कि वह ‘सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास’ चाहता है या ‘विष के वास’ के हाथ का साथ देता है।
*जिया मंजरी
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