शिमला आपदा : शिमला में प्राकृतिक आपदा आयी या बुलायी गयी?

समग्र समाचार सेवा
शिमला, 27 अगस्त। इस साल मानसून में हिमाचल को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है। 12,000 करोड़ की संपत्ति नष्ट हुई। 24 जून से 24 अगस्त तक 242 लोगों की जान गई। 40 लोग अब भी लापता हैं।

कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने 24 अगस्त को केंद्र से हिमाचल प्रदेश में आई प्राकृतिक आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की अपील की ताकि प्रभावित लोगों को तत्काल राहत मिल सके।

वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हिमाचल और खास तौर से शिमला का इस बारिश में जो नुकसान हुआ है, उसे प्राकृतिक आपदा कहकर, उसके लिए जिम्मेवार लोगों को बचाना ठीक नहीं होगा। हिमाचल इस बारिश में जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, इसके लिए प्रकृति नहीं, मनुष्य और विकास के नाम पर पहाड़ों को तोड़कर इकट्ठा किये गये मलबे का पहाड़ और अतिक्रमण का जाल जिम्मेवार है। इसे लेकर न्यायालय और शोधार्थियों की तरफ से बार बार मिल रही चेतावनियों के बावजूद सरकार और प्रशासन की तरफ से बरती जा रहीं लापरवाही का नतीजा है।

हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक आपदा। हिमाचल की राजधानी शिमला की तबाही को ही देखें तो अंग्रेजों ने शिमला को 25 हजार लोगों के लिए बसाया था। 1971 आते आते यहां की आबादी पचास हजार को पार कर गई। 2011 में यह बढ़कर डेढ़ लाख हो गई। बीते बारह सालों में यहां की आबादी में लगभग एक लाख और जुड़ गए। शहर के अंदर घरों के आंकड़ों पर गौर करें तो अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही शिमला में वर्ष 1904 तक सिर्फ 1400 घर थे। वर्ष 2011 की जनगणना में शिमला में लगभग 46 हजार घर बन चुके थे। एक अनुमान के अनुसार अब इन घरों की संख्या 50 हजार को पार कर गई है।

मतलब साफ है कि इस शहर को जितने लोगों के हिसाब से तैयार किया गया था, उससे दस गुना अधिक लोग इस शहर में घुसपैठ कर चुके हैं। घरों के निर्माण में भी नियमों की धज्जियां जमकर उड़ाई गई हैं। शिमला में घुसपैठ करने वालों ने उन पहाड़ियों, गलियों और नालों के किनारे घर बना लिए हैं, जहाँ से पहाड़ पर बरसने वाले पानी की निकासी होती थी। घर बनाने वाले ताकतवर थे। भू माफियाओं से उनकी सांठ गांठ थी। उनकी पहुंच सरकारी बाबूओं से लेकर अफसरों तक थी। इसलिए बार बार तोड़ने का आदेश आने के बाद भी वे घर पर कायम रहे। वे घर हिमाचल प्रदेश में राजनीतिक तंत्र द्वारा बचाए जाते रहे। शवों के निकलने तक का घरों में नहीं है रास्ता प्रकाश बादल शिमला में रहते हैं और एक अच्छे फोटोग्राफर के तौर पर देश भर में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है। प्रकाश के अनुसार शिमला के अंदर संजौली के पास एक जगह है समिट्री, यहाँ पर घर एक दूसरे से ऐसे सटे हैं, कि घर में अगर किसी का देहांत हो जाए तो शव को एक घर की खिड़की से दूसरे घर में स्थानांतरित करना पड़ता है और उसके बाद ही शव बाहर निकल पाता है। घरों से शवों को बाहर निकालने तक का रास्ता नहीं है। प्रकाश यह भी बताते हैं कि इसी तरह खड़े पहाड़ों पर बिना मानकों के बनाए गए बेशुमार भवनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि ने शिमला के पहाड़ों को निगल लिया है। इस शहर में यह भी हुआ कि टाऊन एंड कंट्री प्लानिंग ने एक तरफ तीन मंजिल से अधिक ऊंचे भवनों को तोड़ने के आदेश दिए, दूसरी तरफ राजनीतिक और सरकारी तंत्र इन बेतरतीब भवनों को बचाने के लिए रिटेंशन पॉलिसी ले आई। प्रकृति का बुलडोजर इस बात को शिमला वाले खूब अच्छे से जानते हैं कि कानून अपना काम नहीं कर पाता तो प्रकृति अपना हिसाब बराबर करती है। शिमला के जिस एक मोहल्ले से सबसे अधिक घरों के टूटने की वीडियो और तस्वीरें सामने आई हैं, बताया जा रहा है कि वहां 90 फीसदी घर गैर कानूनी तरीके से बने हुए थे। वहां पानी के निकासी की कोई पक्की व्यवस्था नहीं थी। घरों में इस्तेमाल किया हुआ पानी जमीन के अंदर जा रहा था।

वहां गैर कानूनी तरीके से रह रहे परिवार इस बात को समझ नहीं रहे थे कि उस पानी के जमीन के अंदर जाने से जिस ऊंचे स्थान पर उनका घर बना है, उसके नीचे की मिट्टी धीरे धीरे कमजोर पर रही थी। शिमला में हुई मूसलाधार बारिश ने उस जमीन को और अधिक नर्म बना दिया। इतना नर्म की वहां खड़े बड़े-बड़े पेड़ जमीन छोड़कर धराशायी हो गए। यही स्थिति घरों की भी हुई।

शिमला ने जितना विनाश पिछले दिनों देखा, यदि बारिश ऐसे ही जारी रही तो मानना चाहिए कि अभी यह विनाश थमा नहीं है। स्थानीय प्रशासन यदि कुछ ठोस कदम नहीं उठाता तो आने वाले समय में शिमला की चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं। ऐसा नहीं है कि यहां बेतहाशा हुए निर्माण कार्यों को किसी से छुप छुपा कर किया गया हो। शिमला प्रशासन के सामने भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में बड़ी बड़ी इमारतें बनाई गई।

प्रभुत्वशाली लोगों ने सरकारी दबाव बनाकर अपनी इमारतों को बुलडोजर की जद में आने से तो बचा लिया लेकिन जब प्रकृति का बुलडोजर चला तो एक एक करके उन घरों को उसने निशाना बनाया, जो नियमों की अनदेखी करके बनाए गए थे। अचानक नहीं आई है आपदा शिमला में आने वाली आपदा की पहली चेतावनी सन 2000 में ही मिल गई थी, जब ब्रिटिश युगीन 10 लाख गैलन पानी की टंकी वाले रिज में दरारें आ गईं थी। बाद मे कई बार मरम्मत का भी काम हुआ। वास्तव में शिमला पर बढ़ रहे मानव दबाव को समझने के लिए यह एक संकेत था लेकिन उसे स्थानीय प्रशासन ने नजरअंदाज किया। 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने शिमला की नाजुक स्थिति को जिला प्रशासन और राजनेताओं से अधिक बेहतर तरीके से समझा। इसका परिणाम यह हुआ कि शिमला के हरित क्षेत्रों में निर्माण से जुड़े सभी कार्यो पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई। इस प्रतिबंध की राह में राजनीति रोड़ा बनी। हिमाचल सरकार ने प्रतिबंध को न्यायालय में चुनौती दी। इसी साल मई के महीने में कुछ को छोड़कर उच्च न्यायालय द्वारा सारे प्रतिबंध हटा दिए गए। प्रतिबंध को हटे तीन महीना ही हुआ है और शिमला मानो प्रतिबंध हटने की कीमत चुका रहा है।

शिमला को लेकर बार बार चेतावनी दी गई थी कि वह अपने ही वजन के नीचे दब रहा है और खत्म होने की तरफ अग्रसर है। इसी साल जनवरी में एक अंग्रेजी दैनिक पत्र ने शिमला के संबंध में लिखा कि “पुराने शिमला का 25 फीसदी हिस्सा जिसमें ऐतिहासिक रिज, ग्रांड होटल, लक्कड़ बाजार और लद्दाखी मोहल्ला शामिल है। शिमला का यह 25 फीसदी हिस्सा लोगों के रहने के लिए असुरक्षित है, कई भूगर्भीय सर्वेक्षणों और अध्ययनों में भी यह बात सामने आई है।” किसी को फ​र्क नहीं पड़ रहा स्थानीय प्रशासन यदि अवैध निर्माण को लेकर अपनी आंखें मूंद लेता है फिर प्रतिबंध लगे होने के बावजूद भू माफियाओं को फर्क क्या पड़ता है? यदि फर्क पड़ता तो फिर शिमला में बेधड़क इतना अवैध निर्माण कैसे जारी रह सकता था? इस निर्माण के लिए पहाड़ और जंगल नष्ट किए गए। जल निकासी की प्राकृतिक व्यवस्थाओं को एक एक कर खत्म किया गया। अब यह बात शिमला वालों को भी स्पष्ट हो चुकी है कि इस तरह पर्यावरण नियमों की अनदेखी करके, शिमला को विनाश के गर्त में जाने से कोई रोक नहीं सकता।

बीते सालों में शिमला जाने वाले पर्यटकों ने उस शहर के स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद को देखा है। विकास के संबंध में शिमला को लेकर यही दिखाई पड़ता है कि स्मार्ट सिटी परियोजना ने उसके चारों तरफ ढेर सारा मलबा इकट्ठा कर दिया है। जगह जगह खाई खोदी गई है और वहां भारी लोहे के पुल और सीढ़ियां खड़ी की गई हैं, इन वजहों से पहाड़ों पर पड़ रहे दबाव की प्रकृति भी कब तक अनदेखी करती? आखिर में कीमत चुकाने का समय आ ही गया। पच्चीस हजार लोगों के लिए तैयार किए गए शहर में डेढ़ लाख लोगों का टिके रहना किसी भी तरह से वाजिब नहीं है। बहुत देर हो चुकी है फिर भी इस आपदा के बाद बड़े भवनों के निर्माण में नियमों का सख्ती से पालन हो जाए, हरित क्षेत्रों में निर्माण पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाए, शहर के अंदर से पानी निकासी के संजाल को दुरुस्त किया जाए और पूरे शहर में अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाएं। इतना कुछ करने के बाद भी शिमला बच जाएगा यह तो भूगर्भशास्त्री भी भरोसे से नहीं कह सकते लेकिन प्राकृतिक आपदा आने पर कम से कम अकाल मौतों का सिलसिला जरूर थम जाएगा।

साभार –oneindia.com

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