साधारण नागरिकों के असाधारण योगदान से ही समाज और राष्ट्र आगे बढ़ते हैं- राष्ट्रपति कोविंद

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 95वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में जनता को किया संबोधित

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 24अप्रैल। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आज एक वीडियो कांफेसिंग के माध्यम से 95वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में भाग लिया और कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। अपने संबोधन से पहले कोविंद ने अखिल भारतीय साहित्य महामंडल के 95वें मराठी साहित्य सम्मेलन के आयोजन के लिए सभी को बधाई दिया।
राष्ट्रपति कोविंद ने कहा कि यह सम्मेलन उदयगिरी महाविद्यालय के प्रांगण में आयोजित हो रहा है। सम्मेलन के आयोजन स्थल को ‘भारत-रत्न स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर साहित्य नगरी’ का नाम देने के लिए मैं सभी आयोजकों की सराहना करता हूं। भारत की तथा महाराष्ट्र की संस्कृति को कालजयी विरासत प्रदान करने वाली लता जी के नाम का इतना सार्थक उपयोग साधुवाद के योग्य है। मुझे बताया गया है कि उनकी छोटी बहन, सुश्री मीना मंगेशकर जी ने उन पर एक अच्छी पुस्तक लिखी है, जिसका नाम है – मोठी तिची सावली – यानि ‘उनकी विरासत बहुत विशाल है’।

संयोग से इस वर्ष महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी के महाराष्ट्र उदयगिरि महाविद्यालय की हीरक जयंती भी है। साठ वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर योगदान देने की विशेष उपलब्धि के लिए मैं महाविद्यालय की पूरी टीम को हार्दिक बधाई देता हूं।  मुझे बताया गया है कि महाविद्यालय की स्थापना उदगीर क्षेत्र के किसानों और व्यापारियों ने अपनी गाढ़ी कमाई से की थी। साधारण नागरिकों के असाधारण योगदान से ही समाज और राष्ट्र आगे बढ़ते हैं। इस अवसर पर, महाविद्यालय के संस्थापकों के योगदान को कृतज्ञता-पूर्वक याद करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि यह भी प्रसन्नता की बात है कि यह साहित्य सम्मेलन आजादी के अमृत महोत्सव के साथ ही मनाया जा रहा है। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम तथा हमारी राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में महाराष्ट्र की अनेक महान विभूतियों ने अग्रणी योगदान दिया है। मैं उन सभी स्वाधीनता सेनानियों को श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं।

छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज के नाम से सम्मेलन के सभागृह को सुशोभित करके आयोजकों ने महाराष्ट्र की उस मानवतावादी और समतामूलक परंपरा के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है जिसे महात्मा फुले से लेकर बाबासाहब डॉक्टर आंबेडकर ने आगे बढ़ाया था। सभी जानते हैं कि 19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के आरंभ में शिवाजी महाराज के वंशज शाहूजी महाराज ने महात्मा फुले के आदर्शों को प्रसारित किया तथा बाबासाहब आंबेडकर की विलक्षण प्रतिभा को हर तरह से प्रोत्साहित और प्रेरित किया। महात्मा जोतिबा फुले ने 19वीं सदी के मध्य में ‘गुलामगीरी’ और ‘तृतीय रत्न’ जैसी परिवर्तनकारी पुस्तकें लिखीं थीं। ‘तृतीय रत्न’ नाटक को सामाजिक रंगमंच की महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। बाबासाहब आंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ तथा ‘मूकनायक’ जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन करके, उनके माध्यम से महाराष्ट्र और समूचे भारत के चिंतन को आधुनिकता और समता के आदर्शों से समृद्ध किया। ऐसी ही समता-मूलक विचारभूमि और भावभूमि पर आधुनिक युग में वंचित वर्गों के प्रतिभाशाली रचनाकारों ने मराठी भाषा में उस विपुल साहित्य की रचना की है जिसे ‘दलित साहित्य’ कहा जाता है।

समता और शौर्य, महाराष्ट्र की पहचान हैं। उदयगिरि के इसी क्षेत्र में 18वीं सदी में भाऊ सदाशिव राव पेशवा ने अपने अद्भुत पराक्रम का परिचय देकर छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा जगाई गई स्वाभिमान और स्वराज की भावना को प्रदर्शित किया था और मराठा इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय रचा था। सत्रहवीं सदी में छत्रपति शिवाजी महाराज, समर्थ गुरु रामदास और संत तुकाराम ने ‘मीरी’ और ‘पीरी’ यानि वीरता और ज्ञान की धाराओं को प्रवाहित करते हुए मराठी अस्मिता और साहित्य को असाधारण वैभव से सम्पन्न किया जिसके आधार पर समस्त भारत में एक नया स्वाभिमान उत्पन्न हुआ।
प्राकृत और अपभ्रंश से होते हुए मराठी भाषा और साहित्य का इतिहास जितना प्राचीन है उतना ही समृद्ध भी है। मुझे कर्नाटक में श्रवण-बेल-गोल जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। मुझे बताया गया है कि दसवीं सदी में स्थापित भगवान बाहुबली की उस विशाल प्रतिमा के आधार में उत्कीर्ण वाक्य, “श्री चामुंडराये करवियले, गंगाजे सुत्ताले करवियले”, मराठी भाषा का तत्कालीन स्वरूप है।

आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व उदगीर और आसपास विस्तृत क्षेत्रों में सात-वाहन राजाओं का शासन कई सदियों तक रहा। उनमें से एक राजा जिनका नाम ‘हाल’ कहा जाता है, उन्होंने ‘गाथा-सप्तशती’ यानि ‘गाहा-सतसई’ की रचना की थी। वह पुस्तक भारत की साहित्यिक परंपरा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक है।

नर्मदा, तप्ती और गोदावरी से लेकर तुंगभद्रा और भीमा जैसी नदियों के आशीर्वाद से सिंचित महाराष्ट्र के साहित्य में भी एक जीवंत प्रवाह बना रहा है। स्वामी मुकुंदराज, श्री चक्रधर, संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम तथा समर्थ गुरु रामदास जैसे संत-कवियों का ऋण मराठी ही नहीं अपितु समस्त भारत के भक्ति-साहित्य पर है। संत तुकाराम ने भक्ति-मार्ग की श्रेष्ठता स्थापित की और साथ ही असमानता पर प्रहार किया। उनकी वाणी में एक उद्धरण पढ़ने का प्रयास करना चाहूंगा:

यातायती धर्म नाही विष्णुदास, निर्णय हा ऐसा वेद शास्त्री।
तुका म्हणे तुम्ही विचारुवे ग्रंथ, तारीले पतित नेणों किनी॥

अर्थात विष्णु के भक्तों में जात-पात का भेद नहीं होता, ऐसा निर्णय वेद और शास्त्रों का है। तुकाराम कहते हैं कि भगवान ने कितने लोगों का उद्धार किया है यह कहना संभव नहीं है।

आज महाराष्ट्र की महिला-शक्ति द्वारा भारत को दिये गए अतुलनीय और आश्चर्यजनक योगदान की मैं चर्चा करना चाहूंगा। आज से 2200 वर्ष पहले आरंभ हुए, लगभग 400 वर्षों के सातवाहन शासन के दौरान महारानी नागनिका ने अपने पति सातकर्णी प्रथम की असामयिक मृत्यु के बाद राज-काज संभाला और अपने पुत्र के वयस्क हो जाने तक एक विशाल साम्राज्य को नेतृत्व प्रदान किया। रानी नागनिका के नेतृत्व में सातवाहन साम्राज्य के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ और समृद्धि में भी। उनके शासनकाल में बहुत विकास हुआ और महाराष्ट्र का व्यापार रोम के साम्राज्य तक फैला। उन्हें भारतीय इतिहास की प्राचीनतम महारानी का गौरवपूर्ण स्थान देना सर्वथा इतिहास सम्मत है। नाणे घाट के निकट एक गुफा में रानी नागनिका से जुड़े शिलालेख पाये गए हैं। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था तथा बहुत से सिक्के जारी किए थे। रानी नागनिका के बाद सातवाहन साम्राज्य के राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर ही रखे गए। गौतमी-पुत्र सातकर्णी, वशिष्ठि-पुत्र पुलोमवी, माधरी-पुत्र शकसेन, और हरिती-पुत्र सातकर्णी जैसे सातवाहन राजाओं के नाम यह सिद्ध करते हैं कि भारत की यशस्वी महिलाओं ने प्राचीन काल में ही अपनी शक्ति से समाज को समृद्ध बनाया था। 17वीं सदी में वीरमाता जिजाबाई के योगदान को भला कौन भूल सकता है जिन्होंने न केवल अपने महान सपूत वीर शिवाजी महाराज के चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण किया बल्कि अपनी दक्षता और क्षमता के बल पर मराठा गौरव को नई ऊंचाई देने में भी अपना अमूल्य योगदान दिया।

चौदहवीं सदी में, अत्यंत निर्धन तथा वंचित परिवार में जन्मी जनाबाई ने जाति और लिंग पर आधारित भेदभाव को चुनौती देने वाले अनेक संगीतमय अभंगों की रचना की जो आज तक लोकप्रिय हैं। उनके जीवन और काव्य में अन्याय और असमानता के विरुद्ध प्रखर प्रहार देखा जाता है। वारकरी संतों की परंपरा में उनका सम्मानित स्थान है। पंद्रहवीं सदी के मराठी संत साहित्य को, एक देवदासी के गर्भ से उत्पन्न कान्होपात्रा ने अविस्मरणीय योगदान दिया। महाराष्ट्र के कागल नामक गांव में पैदा हुई बैज़ाबाई ने 1857 के समर के चालीस वर्ष पहले से ही अंग्रेजों से युद्ध करना आरंभ कर दिया था। इस क्रम में, मैं उन्नीसवीं सदी के महाराष्ट्र में समाज, साहित्य और शिक्षा को अप्रतिम योगदान देने वाली सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई क्षीरसागर, फातिमा शेख, मुक्ता सालवे और ताराबाई शिन्दे का सादर उल्लेख करना चाहूंगा। उन्हें आधुनिक महाराष्ट्र की पंच-कन्याओं के रूप में सम्मानित करना चाहिए। सावित्रीबाई फुले की कविताओं के संकलन, “काव्य फुले” तथा “बावन-कशी सुबोध रत्नाकर” समाज-हित में रचे गए साहित्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उनका जीवन भी अपने आप में एक मिसाल है। सन 1890 में अपने पति महात्मा फुले के पार्थिव शरीर का दाह-संस्कार सावित्रीबाई ने स्वयं किया था। साथ ही उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ का कार्यभार भी संभाल लिया था। ताराबाई शिंदे ने सन 1882 में ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ नामक पुस्तक की रचना की। उस रचना को भारत में नारी-मुक्ति के विषय पर लिखा गया पहला आलेख माना जाता है। विदेश जाकर वेस्टर्न मेडिसिन की शिक्षा प्राप्त करके डॉक्टर बनने वाली भारत की प्रथम महिलाओं में महाराष्ट्र की डॉक्टर आनंदीबाई जोशी ने, प्राप्त संदर्भों के अनुसार, सन 1886 में ही एम.डी. की डिग्री हासिल कर ली थी। उनका उदाहरण एक प्रगतिशील समाज का परिचय देता है। बीसवीं सदी में महाराष्ट्र की प्रमिला ताई मेढे जैसी समाज सेविकाओं ने देशव्यापी योगदान दिया है।

राजनीति, समाज-सुधार, चिंतन और साहित्य के क्षेत्रों में प्राचीन काल से ही अग्रणी रहने वाली महाराष्ट्र की महिलाओं का आज के स्वाधीन भारत में अनेक अन्य राज्यों की महिलाओं से पीछे रहना चिंता का विषय है। सन 2011 की जन-गणना के अनुसार महिला साक्षरता के पैमाने पर महाराष्ट्र चौदहवें स्थान पर था। सेक्स-रेशियो के मानक पर तो महाराष्ट्र बाईसवें स्थान पर था। इस साहित्य सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रबुद्ध नागरिकों को यह संकल्प लेना चाहिए कि सावित्रीबाई फुले और ताराबाई शिंदे के महाराष्ट्र में महिलाओं को स्वास्थ्य, शिक्षा और साहित्य में अग्रणी स्थान दिलाना ही है।

कोविंद ने अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के सफल आयोजन के लिए सभी को बधाई देते हुए मराठी साहित्य के निरंतर उत्कर्ष की मंगल-कामना की और कहा कि उदयगिरि महाविद्यालय की टीम तथा भूतपूर्व और वर्तमान विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य के लिए मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं।

 

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