महापुरुष संत श्रीमंत शंकरदेव जी – असम में वैष्णव आंदोलन के प्रतिष्ठाता

डॉ कल्पना बोरा 

जय गुरु शंकर –  असम के जगद्गुरु महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव जी भारत की विशाल भक्ति परंपरा के महान संतों में से एक हैं। वे एक महान धार्मिक उपदेशक, विद्वान, संत, समाज सुधारक, साहित्यिक महारथी, कलाकार, कवि, नाटककार, संगीतकार और नव-वैष्णव पुनर्जागरण के एक प्रेरणा स्वरूप  थे। उनके गहन प्रभाव ने भक्ति के माध्यम से भारत के पूर्वोत्तर  असम में समानता और एकता के मूल्यों का पुनः  सृजन  हुआ । 575 वर्ष पूर्व जन्मे इस महान संत ने असम में  राजनीतिक अशांति और धार्मिक विघटन के कठिन समय में समाज को  एक धार्मिक और सांस्कृतिक एकता का आधार प्रदान किया। जैसा कि स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उल्लेख किया था – इन  महापुरुष के साहित्यिक कार्य असमिया भाषा के प्रारंभिक मानक कार्यों में गिने जाते हैं। उनके द्वारा आरंभ किए  गए  वैष्णव भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप असम के लोगों में एक  सामाजिक-धार्मिक भावना एक समान रूप से विकसित हुई, जो भारत की अन्य भाषाओं एवं साहित्य में प्रतिफलित हुई जिससे भारतीय समाज में समरसता के भाव का पुनर्जागरण संभव हुआ  । इससे असम का राजनीतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और भाषाई विकास हुआ। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है  कि आज जो असमिया भाषा  है वह इन  महान संत के कारण है।

14वीं और 15वीं शताब्दी में भारत में  अनेक सामाजिक-धार्मिक शक्तियाँ समाज में  प्रभावी  थीं , जिसके परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न हिस्सों में नए भक्ति आंदोलनों का जन्म हुआ । इन भक्ति आंदोलनों ने, जो अनेक महान संतों द्वारा संचालित थे, सभी के लिए ईश्वर तक पहुँचने और शुद्ध भक्ति पर बल दिया। संत कबीरदास, रामदास, गुरु नानक देव, रामानुज, मीराबाई, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि संतों ने भारत के प्राचीन संस्कृत पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया और उनके भक्ति आंदोलनों ने समाज के विभिन्न वर्गों में सामंजस्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।बर्बर मुगल आक्रमणों के बीच हमारे लोगों का मंदिरों में जाना कठिन हो गया था। इन संतों ने मार्गदर्शन किया एवं बताया  कि अपने घर में  ही राम-कृष्ण के नाम जपकर भक्ति संभव है। अतः ये देखा जाता है कि इन आंदोलनों ने उन उथल-पुथल भरे समय में भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

15वीं शताब्दी से पहले का असम

श्रीमंत शंकरदेव जी का जन्म 1449 ई. (1371 शक) में असमिया भुइयाँ परिवार में, आश्विन मास की दशमी तिथि को, बरदोवा से लगभग 13 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में अलीपुखुरी में हुआ था। उस समय असम विभिन्न साम्राज्यों में विभक्त था – पूर्वी क्षेत्र में सुतिया शासन करते थे, दक्षिण-पूर्व में कचारी, तथा सुतिया और कचारी के पश्चिम और दक्षिण में भुइयाँ सरदारों का शासन था। सुदूर पश्चिम में कामता का राज्य था, जो बाद में कोच राजाओं के अधीन कोच बिहार के नाम से जाना गया। शंकरदेव के जन्म से सदियों पूर्व , विभिन्न जातियों और जनजातियों वाले समाज में लोगों की अनेक प्रकार की आस्थाएँ और विश्वास प्रचलित थे।उनमें  से अधिकांश शाक्त और तांत्रिक परंपराओं का पालन करते थे, जिनमें जटिल अनुष्ठान, मंत्र और पशुबलि  शामिल थे।

श्रीमंत शंकरदेव का जीवन और योगदान 

शंकरदेव ने अपने माता-पिता को बहुत कम उम्र में खो दिया था एवं  उनका पालन-पोषण  उनकी दादी खेरसुति ने किया। लगभग 12 वर्ष की आयु में उन्होंने गुरु महेंद्र कंडली के संरक्षण में शिक्षा प्रारंभ की। एक मेधावी छात्र के रूप में, उन्होंने वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, संहिता, काव्य, तंत्र और व्याकरण का अध्ययन किया एवं  संस्कृत और शास्त्रों के महान विद्वान बने। वे योग का अभ्यास भी करते थे। वर्णमाला सीखने के पश्चात , उन्होंने केवल व्यंजनों से बना एक काव्य रचा। अपनी प्रारंभिक विद्यालय की  शिक्षा के काल में  उन्होंने एक छोटा काव्य ‘हरीशचंद्र उपाख्यान’ भी रचा। जब शंकरदेव ने अपनी पहली पत्नी सूर्यवती और पिता कुसुम्बर को खोया, तो वे दुख से भर गए और संसार त्यागने का विचार करने लगे। 32-34 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पहली तीर्थयात्रा शुरू की, जिसमें उनके गुरु महेंद्र कंडली सहित 17 भक्तगण शामिल थे। उनकी जीवनी पर विभिन्न  लेखकों के अनुसार, यह यात्रा लगभग 12 वर्ष तक चली। उन्होंने भारत के कई तीर्थस्थानों का भ्रमण  किया। उत्तर और दक्षिण भारत के इन पवित्र स्थानों और मंदिरों में, वे विभिन्न वैष्णव शिक्षकों से मिले, उनसे सीखा और उनके साथ धार्मिक चर्चाएँ कीं। नव-वैष्णव आंदोलन की यह तीर्थयात्रा, जो उस समय उत्तर भारत के कई भागों  को प्रभावित कर रही थी, ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। धीरे-धीरे, श्री भागवत पुराण का संदेश आम जनता तक पहुँचाना उनके जीवन का उद्देश्य  बन गया। उन्होंने अपने घर पर ही धार्मिक चर्चाएँ और प्रवचन शुरू किए, और धीरे-धीरे उनका एक-शरण-नाम-धर्म आंदोलन  उभर कर आने लगा। सभी जातियों, व जनजातियों के लोग उनके अनुयायी बन गए। श्रीमंत शंकरदेव  ने अनुभव  किया कि भागवत पुराण का उद्देश्य भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) को एकमात्र पूजनीय के रूप में प्रस्तुत करना है।  पवित्र लोगों के साथ उनके सद्कार्यों  और लीलाओं का उत्सव मनाना, उनके बारे में भजन (नाम) गाना और उनमें शरण लेना मानवता का सबसे बड़ा धर्म है । उन्होंने बरदोवा से इस भक्ति आंदोलन को आम जनता में प्रचार करने का कार्य शुरू किया। 

विभिन्न कारणों से उन्हें माजुली, कामरूप और बरपेटा आदि भी जाना पड़ा। महापुरुष ने नामघर और सत्र जैसे संस्थानों की स्थापना की। नामघर में उनके अनुयायी  भागवत पुराण और भक्ति आंदोलन पर उनके प्रवचनों को सुनते थे। सत्र एक आश्रम की तरह हैं, जहाँ सत्राधिकारी (सत्र के प्रमुख) द्वारा एक-शरण-नाम-धर्म, सत्रीय नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाती है, और शिष्य गुरु-आश्रम परंपरा  से  शिक्षा प्राप्त करते हैं। सत्रों में बालक और युवा सत्रीय गुरुकुल शिक्षा प्राप्त करते हैं। अपने एक-शरण-नाम-धर्म आंदोलन के दौरान शंकरदेव ने भागवत पुराण का असमिया में अनुवाद किया। यह केवल अनुवाद नहीं था, इसे भगवत (12 खंड) के साथ व्याख्या के रूप में माना जा सकता है। उन्होंने इसे सरल असमिया में लिखा, जो आम लोगों द्वारा समझा जा सकता था, और इसमें दैनिक जीवन के मुहावरे, कहावतें, विवरण, संदर्भ और कहानियाँ जोड़ीं, ताकि इसे और आनंददायक बनाया जा सके। कुछ स्थानों पर उन्होंने अन्य पुराणों से कुछ पाठ और कहानियाँ भी जोड़ीं। यह इस महान संत की रचनात्मकता थी।

महापुरुष ने भक्ति-रत्नाकर, कीर्तन घोषा और कई अन्य साहित्यिक कृतियों की रचना की, जिसमें उनके द्वारा रचित अंकिया नाट (एक-अंकीय नाटक)  थे। काव्य ‘कीर्तन’ न केवल अपने धार्मिक दृष्टिकोण के लिए, बल्कि उन उदात्त और उच्च विचारों के लिए भी महत्वपूर्ण है, जो सभी पंथों  को पार करते हैं। बच्चों के लिए यह कहानियाँ और गीत प्रदान करता है, युवाओं को सच्ची काव्यात्मक सुंदरता से आनंदित करता है, और वृद्धों  को इसमें धार्मिक शिक्षा और बुद्धिमत्ता मिलती है। कीर्तन में सभी भावनाएँ – दर्द, प्रेम, वियोग, क्रोध और क्षमा – सुंदर रूप से समाहित हैं। ग्रंथों की कहानियों को समझने में आसान बनाने के लिए, शंकर ने चिह्न यात्रा (एक-अंकीय ओपेरा) बनाया। भाओना, सत्रीय नृत्य, सत्रीय संगीत, बोड़गीत, ओजा पल्ली नृत्य, और कठपुतली नाटकों के द्वारा महाभारत, भगवद्गीता, रामायण और अन्य शास्त्रों की कहानियों को प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया । उन्होंने गायन-बायन की भी रचना की । वे 1546 ई. में बरपेटा चले गए और वहाँ पातबाउसी में एक सत्र और नामघर की स्थापना की, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के अंत तक वास किया। उनके धार्मिक लेखन, गीत, नाटक और काव्यों का अधिकांश भाग यहीं लिखा गया। 1550 ई. में, लगभग 100 वर्ष की आयु में, शंकरदेव 120 भक्तों के साथ अपनी दूसरी तीर्थयात्रा पर पुरी गए। इस यात्रा के दौरान, माना जाता है कि उन्होंने पुरी में चैतन्य महाप्रभु से मुलाकात की। 120 वर्ष की आयु में इस असम और भारत के इस महान संत का स्वर्गवास हो गया।

वर्तमान पीढ़ी के लिए शिक्षा 

आज भी, श्रीमंत शंकरदेव जी की शिक्षा इतनी प्रासंगिक और प्रेरणादायक हैं कि हमारा युवा उनसे एक सुखी और सफल जीवन व्यतीत करने हेतु बहुत कुछ सीख सकता है। 

1. बचपन में माता-पिता को खोने के बावजूद, शंकरदेव ने धैर्य नहीं खोया। केंद्रित परिश्रम, विद्या के प्रति उत्साह और लचीलेपन के साथ, उन्होंने ज्ञान और धर्म के मार्ग का अनुसरण किया, और समाज, मानवता तथा  राष्ट्र के लिए बहुत कुछ हासिल किया और योगदान दिया।

2. वे योग किया करते थे, अंतिम सांस तक स्वस्थ और तेजस्वी रहे। उनका करिश्माई व्यक्तित्व था, कमल जैसे नेत्र, और उनके चेहरे से दीप्तिमय ज्ञान का प्रकाश झलकता था।

3. शंकरदेव ने सर्वजनीन और लोकतांत्रिक धर्म की स्थापना की, जो सभी जातियों, पंथों और जनजातियों – चांडाल, गारो, भूटिया, कैवर्त, कचारी, कुम्हार, कायस्थ, कलिता, मोरान, सुतिया, अहोम, शूद्र आदि – के लिए सुलभ था। उन्होंने जोर दिया कि हरि भक्ति में समर्पित होने वालों के लिए ईश्वर की प्राप्ति संभव है – सामाजिक समरसता का संदेश। 

4. अपने वैष्णव भक्ति आंदोलन के माध्यम से, संत ने पुराणों, रामायण, महाभारत आदि का प्रचार करके लोगों को एकजुट किया। कुछ हद तक, नामघर और सत्र दक्षिण भारत के मठवासी स्थानों की तर्ज पर बनाए गए थे। उनके कुछ ग्रंथ और कलात्मक अभिव्यक्तियाँ कबीर, विद्यापति आदि अन्य संतों से भी प्रेरित थीं – राष्ट्रीय एकता का संदेश। 

5. उनके लेखन और ग्रंथों में धर्म के नैतिक पहलुओं पर बहुत जोर दिया गया। उन्होंने सत्य, दया, दान, अहिंसा, क्षमा, ईर्ष्या विहीनता, धृति (धैर्य), श्रद्धा, सम्मान और दम (इंद्रियों पर नियंत्रण) जैसे गुणों को विस्तार से समझाने के लिए पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता आदि से उदाहरणों का उपयोग किया – नैतिकता का संदेश। 

6. उन्होंने न केवल भक्ति आंदोलन का प्रचार किया और नैतिक गुणों को स्थापित किया, बल्कि सामाजिक बुराइयों को दूर कर एक नई  सामाजिक व्यवस्था का आरंभ किया ।

7. उन्होंने असमिया साहित्य, नाटक, कविता, गीत, नृत्य, संगीत, सत्रीय परिधान, कठपुतली, गायन-बायन का सृजन  किया, जिससे लोगों में एकता को बढ़ावा मिला।

8. महापुरुष ने अपने ग्रंथों को लिखने के लिए एक कृत्रिम भाषा ‘ब्रजावली’ बनाई, जो अवधि  और असमिया भाषाओं का मिश्रण थी। इसकी  मधुरता और शास्त्रीय प्रकृति ने सभी का मन मोह लिया क्योंकि  यह आम लोगों द्वारा आसानी से समझी जा सकती थी। उन्होंने विभिन्न ग्रंथों से कहानियाँ और सामग्री एकत्र की,ताकि उन्हें और रुचिकर बनाया जा सके।

                  “कोटि कोटि प्रणाम इन महान संत को, जो भारत और असम का गौरव हैं”

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