गवर्नर की समयसीमा पर सुप्रीम कोर्ट में , सुनवाई के चौथे दिन गूंजे तीखे तर्क”

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 26 अगस्त-सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए अहम रेफरेंस पर चौथे दिन भी सुनवाई जारी रही। यह मामला इस बात से जुड़ा है कि राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर गवर्नर और राष्ट्रपति को मंजूरी देने में कितनी समयसीमा तय होनी चाहिए। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ—जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और अतुल एस. चंदुरकर शामिल हैं—ने दलीलों की सुनवाई की।

विवाद की पृष्ठभूमि

यह मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए रेफरेंस से उपजा है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत राष्ट्रपति किसी महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। इसका सीधा संबंध सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के उस फैसले से है, जिसमें तमिलनाडु के गवर्नर मामले में कोर्ट ने कहा था कि गवर्नर राज्य विधेयकों पर अनिश्चित काल तक निर्णय टाल नहीं सकते।

उस फैसले में कोर्ट ने भले ही अनुच्छेद 200 और 201 में स्पष्ट समयसीमा न होने की बात मानी, लेकिन कहा कि “उचित समय” में फैसला लिया जाना चाहिए। राष्ट्रपति के लिए भी अधिकतम तीन महीने की समयसीमा तय की गई थी। केंद्र सरकार ने इसे न्यायपालिका द्वारा विधायी अधिकारों में दखल बताया और राष्ट्रपति ने 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट से राय के लिए भेज दिए।

चौथे दिन की सुनवाई

सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे, जो केंद्र का पक्ष रख रहे थे, ने दलील दी कि गवर्नर को अनुच्छेद 200 के तहत विवेकाधिकार है और इसे पूरी तरह न्यायिक समीक्षा में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने कहा कि गवर्नर को विधेयक रोकने का अधिकार है, हालांकि इसे “वेटो” कहना उचित नहीं होगा।

जस्टिस नरसिम्हा ने सवाल उठाया कि क्या इस व्याख्या का मतलब यह होगा कि गवर्नर मनी बिल तक को अनिश्चितकाल रोक सकते हैं? साल्वे ने जवाब दिया कि संविधान में ऐसा प्रावधान है, लेकिन अदालतें इसमें समयसीमा नहीं जोड़ सकतीं। इस पर CJI ने टिप्पणी की कि अगर गवर्नरों को ऐसा असीमित अधिकार दे दिया गया तो निर्वाचित सरकारें “गैर-निर्वाचित अधिकारियों की मर्जी” पर निर्भर हो जाएंगी।

वहीं, सीनियर एडवोकेट नीरज किशन कौल (तमिलनाडु की ओर से) ने तर्क दिया कि गवर्नर अनिश्चित काल तक बिल नहीं रोक सकते। जब मंत्रिपरिषद किसी बिल को दोबारा भेजती है तो गवर्नर को या तो उस पर हस्ताक्षर करना होगा या राष्ट्रपति को भेजना होगा, लेकिन उसे लंबित नहीं रख सकते। राजस्थान की ओर से पेश मनिंदर सिंह ने कहा कि गवर्नर की भूमिका विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है और इसलिए इसे न्यायिक समीक्षा से अलग नहीं किया जा सकता।

संवैधानिक दांव-पेच

मूल सवाल यह है कि क्या अनुच्छेद 200 और 201 गवर्नरों और राष्ट्रपति को बिलों को रोके रखने का असीमित अधिकार देते हैं, या लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इन्हें “उचित समय” में निर्णय लेना जरूरी है। अप्रैल के फैसले ने जवाबदेही पर जोर दिया था, जबकि राष्ट्रपति का रेफरेंस इस पर सवाल उठा रहा है।

आगे क्या?

पीठ ने कहा कि वकीलों को दोहराव से बचना चाहिए और केवल मूल संवैधानिक सवालों पर ध्यान देना चाहिए। सुनवाई इस सप्ताह जारी रहेगी और इसका फैसला न केवल गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों को परिभाषित करेगा, बल्कि भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र-राज्य संबंधों का भविष्य भी तय करेगा।

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.