“वक्फ कोई विशिष्ट धार्मिक अभ्यास नहीं है”: सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित कानून पर फैसला सुरक्षित रखा

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 22 मई: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को वक्फ (संशोधन) कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी करते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। इस बहुप्रतीक्षित मामले की केंद्रीय बहस यह रही कि क्या “वक्फ” इस्लाम का एक आवश्यक धार्मिक अंग है या एक व्यापक धर्मार्थ दान का रूप।

याचिकाकर्ताओं ने इस कानून को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए रद्द करने की मांग की, जबकि केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि यह कानून पारदर्शी प्रशासन सुनिश्चित करता है और इसे आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं माना जा सकता।

तीसरे दिन की सुनवाई में याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी, “वक्फ ईश्वर को समर्पण है… यह परलोक के लिए है। अन्य धर्मों से अलग, वक्फ ईश्वर के लिए धर्मार्थ कार्य है।” इस पर मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की, “धार्मिक दान केवल इस्लाम तक सीमित नहीं है… हिंदू धर्म में भी मोक्ष की अवधारणा है… और अन्य धर्मों में भी धर्मार्थ कार्य की अहम भूमिका है।” न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह ने ईसाई धर्म के समान प्रावधानों का भी उल्लेख किया।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस याचिका पर भी आदेश सुरक्षित रखा, जिसमें नए कानून पर अंतरिम रोक लगाने की मांग की गई है। न्यायालय के समक्ष यह स्पष्ट हुआ कि वक्फ को धर्मार्थ दान माना जाए या धार्मिक गतिविधि—यह कानून की वैधता तय करने में निर्णायक होगा।

सरकार की यह दलील कि वक्फ कोई अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है, को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने कहा कि “किसी बाहरी संस्था को यह तय करने का अधिकार नहीं कि कोई धार्मिक प्रथा अनिवार्य है या नहीं।” उनका तर्क है कि नए कानून से इस्लाम की आवश्यक परंपराओं में हस्तक्षेप होता है, जबकि सरकार इसे गैर-धार्मिक संपत्ति प्रबंधन मानती है, जो मदरसे और अनाथालय जैसी धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं पर भी लागू होता है।

सुनवाई के दौरान एक महत्वपूर्ण उदाहरण तमिलनाडु के एक गांव की महिला का दिया गया, जहां एक संपूर्ण बस्ती—जिसमें चोल काल (9वीं-13वीं सदी) का एक हिंदू मंदिर भी शामिल है—को वक्फ भूमि घोषित कर दिया गया था।

एक और विवादास्पद मुद्दा वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्यों की अनिवार्य नियुक्ति का है। सरकार ने इसे संपत्ति प्रबंधन जैसी धर्मनिरपेक्ष जिम्मेदारी बताया, जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसे संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करार दिया, जो धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। सिब्बल ने तर्क दिया कि इससे मुस्लिम समुदाय वक्फ से संबंधित निर्णयों में अल्पमत में आ सकता है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी यह सवाल उठा चुका है कि क्या यही तर्क हिंदू मंदिरों के प्रबंधन निकायों में गैर-हिंदुओं की नियुक्ति का आधार बन सकता है?

कानून का तीसरा विवादास्पद प्रावधान यह है कि केवल वे मुस्लिम ही वक्फ दान कर सकते हैं जो कम से कम पांच वर्षों से अपने धर्म का पालन कर रहे हों। वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने सवाल उठाया, “क्या कोई धार्मिक न्यास यह मांग करता है कि दानकर्ता अपने धार्मिक पालन का प्रमाण दे? कौन यह प्रमाण मांगता है?”

इसके अलावा “यूजर द्वारा वक्फ” का प्रावधान, जिसे नए कानून में समाप्त कर दिया गया है, भी बहस का विषय रहा। पहले यह प्रावधान वक्फ बोर्ड को बिना दस्तावेज के किसी संपत्ति को वक्फ घोषित करने की अनुमति देता था यदि वह धार्मिक/धर्मार्थ उपयोग में आती हो। सरकार ने कहा कि यह अधिकार 1954 के कानून में था और नए कानून द्वारा इसे हटाया जा सकता है। साथ ही आश्वासन दिया कि पहले से घोषित संपत्तियों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि वह नए कानून पर आंशिक या पूर्ण रोक लगाने के किसी भी प्रयास का विरोध करेगी, यह तर्क देते हुए कि संसद द्वारा पारित कानूनों को संवैधानिक मानने की प्राथमिकता और शक्तियों के संतुलन का सिद्धांत लागू होता है।

सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में उन चुनिंदा याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है जो लगभग 200 से घटकर रह गई हैं। इन याचिकाओं में वक्फ संशोधन कानून की उन धाराओं को चुनौती दी गई है, जिनमें गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति, दान देने की शर्तें और “वक्फ बाय यूजर” की समाप्ति शामिल हैं। यह संशोधित कानून अप्रैल 2025 में संसद में पारित हुआ था, जिसे विपक्ष ने “तानाशाहीपूर्ण” बताया जबकि सरकार ने इसे पारदर्शिता और लैंगिक समानता की दिशा में कदम बताया।

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