पीएम मोदी के स्वदेशी अभियान से बैचेन होकर तिलमिलाया चीन!
कुमार राकेश
कोरोना के वैश्विक आपदा काल में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने देश के लिए एक नया नारा दिया –आत्मनिर्भरता का. आत्म निर्भर भारत अभियान की शुरुआत की. उस भावना की पुरजोर वकालत की. परन्तु उस नारे में नया क्या है? ये तो सबको पता है. पर प्रधानमंत्री मोदी को क्या हो गया है. पुरानी बातों को दोहरा कर क्या साबित करना चाहते हैं? देखिये साहेब, हम तो इन बातों को सदियों से सुनते आ रहे हैं, लेकिन इसे अपने जीवन में उतार सके थे क्या? किसी ने करवाया था क्या? आपके पास जवाब होगा-बिलकुल नहीं. ये एक महत्वपूर्ण सवाल है. मुद्दा भी है, सबके लिए. विपक्षी दलों के लिए भी. हर देशवासियों के लिए भी.
गुलाम मानसिकता से भरपूर ज्यादातर भारतीयों की कई परेशानियां हैं. वे जानते बहुत कुछ हैं, परन्तु करते कुछ भी नहीं. बिना किसी जोरदार झटके के. अब वो काम आज़ादी के बाद पहली बार किसी राजनेता ने किया है. किसी प्रधानमंत्री ने, जो हमें आत्मनिर्भरता के वास्तविक अर्थ को समझाने की कोशिश की है, वो भी अपनी शैली में. स्वदेशी व स्वावलंबन की बातें तो कई दिग्गजों ने की, लेकिन उन फार्मूलों को सरकारी स्तर पर घोषणा के साथ उसका उचित व्यवहारिक क्रियान्वयन के लिए कृत संकल्प किया है प्रधानमंत्री मोदी ने. आपको अच्छा लगे ये बुरा. वैसे जीवंत लोकतंत्र के लिए आलोचना व विरोध जरूरी भी है. लेकिन बिना किसी ठोस आधार के सिर्फ विरोध के लिए विरोध, ये उचित नहीं.
अब तो श्रीश्री रविशंकर भी खुश, बाबा रामदेव भी गदगद
कोरोना काल में युद्धरत प्रधानमंत्री मोदी ने देश के बचाव के लिए स्वावलंबन व स्वशक्ति पर चर्चा की. उसको जगाया. उस शक्ति का आह्वान किया. जागो भारत जागो. स्वदेशी बनो, स्वदेशी बनाओ. स्वदेशी उत्पादन करो. प्रधानमंत्री ने अपनी चिर-परिचित काव्यात्मक शैली में कहा –लोकल को अपनाओ, वोकल बनो, ग्लोबल बनाओ, इसका सीधा मतलब है कि विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार करो, देशी को अपनाओ. अपने उत्पादों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दो और आगे बढ़ो. फिर देखो कमाल. जो चाहोगे, वही मिलेगा. मतलब देश के विशाल बाज़ार पर छाया हुआ चीनी व अन्य उत्पादों का बहिष्कार. अब तो श्रीश्री रविशंकर भी खुश, बाबा रामदेव भी गदगद.
आज़ादी के बाद देश का पहला राजनेता, पहला प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी, जिन्होंने स्वदेशी की खुले मंच से आह्वान किया. पूरी शक्ति से अपील की. आज़ादी के पहले एक और गुजराती जननायक मोहनदास करमचंद गांधी ने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाये जाने को लेकर एक विशाल आन्दोलन किया था. वो वक़्त था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का, आज वक़्त है, कोरोना मुक्ति के साथ आपदा काल को महा-अवसर काल में बदलने का. पीएम मोदी ने कहा, लोकल, लोकल और सिर्फ लोकल. एक साथ सब खुश, देश खुश, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी खुश, भाजपा भी खुश और देश की सारी जनता भी गदगद. पहली बार, जी हां, ये पहली बार ऐसा हुआ. मुझे लगता है कि इससे भारत की तस्वीर पहले से ज्यादा बेहतर व सशक्त होगी.
हम खुद को भूल से गए थे और परजीवी हो गए थे
प्रधनामंत्री मोदी और आत्मनिर्भरता का बड़ा मेल हैं. जो कहते है, वही करते हैं. वही लोगों से भी करने को कहते हैं. आत्मनिर्भरता के कई अर्थ हैं, कई मायने हैं. इसका मतलब है स्वयं पर निर्भरता. स्वयं पर प्रबल भरोसा. अपना हाथ, जगन्नाथ वाली बात. हुनरमंद होने वाली बात. जो आपके पास है, वही आपका है. स्वयं की शक्ति को पहचानकर उस पर अमल करना. परन्तु यदि हम अपने अपने दिमाग पर जोर दें तो पता चलेगा कि जो अपने पास था, उसको हम भूल से गए थे और परजीवी हो गए थे. परजीवी का मतलब-दूसरों पर आश्रित होना. एक बोझ बनना. जैसे चीन पर हम पूरी तरह से आश्रित हो गए थे. शायद पुराने राजनेताओं की कृपा से. स्वाभाविक हैं, जब आप दूसरों पर बोझ बनेगे, तो आप कष्ट में होंगे. फिर सुख की तलाश करेंगे. ये संभव है क्या? बिलकुल नहीं. इसलिए सम्पूर्ण सुख व शांति के लिए जरूरी है, वही अति प्राचीन सूत्र-आत्मनिर्भरता यानी स्वावलंबन का अनुपम मार्ग. जिस मार्ग पर हमें क्या सबको शान्ति, सुकून और संतुष्टि मिलती है. यही हमारी भारतीय, सनातन हिन्दू संस्कृति की मूल पहचान भी है. कोई माने या न माने, परन्तु यही ध्रुव सत्य है. इसी संस्कृति को बढ़ाने का कार्य हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने किया है. हम जो अपनी प्रतिभा, आविष्कार भाव भूल से गए थे, उसको अपने स्टाइल में सभी देशी व विदेशी भारतियों को याद दिलाया है. एक नए नाम आत्मनिर्भर भारत अभियान से. उस अभियान को धरती पर उतारने के लिए एक बड़ा आर्थिक पैकेज 20 लाख करोड़ रुपये का दे दिया. वह बोले-जो करना है कर लो. यही है हमारे पास. जैसे भी है, जो भी है. जो अपने पास है. वो देश का है.
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मोदी सरकार उन पिछली सरकारों की तरह नहीं है. पिछली कई सरकारों ने राहत के नाम पर देश को आहत किया. कई राहत कार्यों में देश को कई प्रकार से आहत किया, जमकर लूटा. सरकारी धन का जमकर दोहन किया. वैसे तो हमारे देश में कई विद्वान प्रधानमंत्री भी रहे, लेकिन गुलाम भाव में. कई अर्थशास्त्री वित्त मंत्री भी रहे, जो बाद में प्रधानमंत्री भी हुए. लेकिन उन लोगों ने देश के लिए अर्थ की व्यवस्था कम, अनर्थ ज्यादा किया. जिससे देश का भारी नुकसान भी हुआ. क्या करते बेचारे, उन सबका अपना-अपना स्वार्थ था. उनके पार्टी के प्रमुखों का अलग स्वार्थ था. मतलब कि देश का स्वार्थ सबसे नीचे थे तो निजी स्वार्थ सबसे ऊपर. तो देश का भला कैसे होता. याद कीजिये उतराखंड के केदारनाथ हादसे को. एक राजनेता की निजी हेलिकाप्टर कंपनी ने मृतकों व घायलों के नाम पर करोड़ों बनाये, जबकि हमारे पास सरकारी व्यवस्था भी कम नहीं थी. क्या करे लोगों के अपने अपने भाव होते हैं. अपने अपने स्वार्थ. देश नीचे. स्वार्थ ऊपर. वैसे तो पिछली सरकारों के कुकर्मों की लम्बी सूची है हमारे पास, देश के पास, उस पर चर्चा फिर कभी.
आज देश सेवा ही सर्वोच्च सेवा है
आज सब कुछ विपरीत है. देश का हित ही स्वहित है. देश सेवा ही सर्वोच्च सेवा है. देश की भलाई में ही सबकी भलाई है. फिर तो देश तो आगे बढे़गा ही. बढ़ना ही चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इस आत्मनिर्भरता अभियान के जरिये एक साथ कई नए आंदोलनों को जन्म दे दिया है. ऐसा लगता है वह हर भारतीय की ख़ुशी व गम दोनों के राज़ जानते हैं, समझते हैं. तभी तो गांव, गरीब, किसान, कमजोर वर्गों का विशेष ध्यान रखा. रख रहे हैं. करीब 492 वर्षों से लंबित अयोध्या मंदिर विवाद का निपटारा किया. 72 वर्षों से लटकाए गए कश्मीर को पुराने मायाजाल से मुक्त करवाया. मुस्लिम समाज में तीन तलाक जैसी कुरीतियों को जड़मूल से समाप्त किया. फिर पाकिस्तान का इलाज किया. कर भी रहे हैं. उसके बाद अब भारत की दया पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता हासिल करने वाला चीन की विशेष खिदमत की पुरजोर तैयारी शुरू कर दी गयी है.
सच कहा जाये तो, कोरोना के इस महामारी काल में चीन ने तो हद ही कर दी है. पता नहीं क्या चाहता है? कोरोना (कोविड-19) को पूरी दुनिया में फैलाकर क्या पाना चाहता है? क्या मिल जायेगा उस दोमुहे किस्म के देश को. धर्म बौद्ध का, भाव युद्ध का. राजनीति व सरोकार आम जन से दूर होने का. जनता बेचारी बुद्धिहीन बना दी गयी है. कहने का लोकतंत्र है चीन में, परन्तु सब कुछ बंद है. किसी को खुलकर बोलने का अधिकार नहीं. चीन में तो आम लोगों को न तो चैन है, न शांति. लेकिन चीन हर वक़्त चैन व शांति की बात करता हैं. कहा जाता है कि जिसके पास जो चीजें नहीं होती हैं, वे अक्सर उसकी ही वकालत करते नज़र आते हैं. साथ में दोषारोपण में सबसे आगे रहते हैं. चीन यही कर रहा हैं. चीन महाशक्ति बनने के फेर में विश्व परिपेक्ष्य में कई घोषित मर्यादाएं लांघ गया है. वह कई देशों का विश्वास भी खो चुका है.
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पर भारत उनसे कई मामलो में सर्वश्रेष्ठ है और रहेगा. क्योकि भारत के पास विश्वसनीयता की शक्ति है. प्रतिभा की शक्ति है. एक जुनून भरी ताक़त है. थोड़ी जरूरत है उस जुनून को जगाने की. उस बजरंगबलीय ताक़त को जगाने की. जो काम श्री मोदी कर रहे हैं. कोरोना काल में भारत ने करोड़ो रूपये की दवाइयां बेचीं और मुफ्त में वितरित भी की. अपने देश के लिए तमाम चिकित्सीय सुविधायें जुटाई और कई देशो को निश्वार्थ मदद कर रिश्तों को पहले से ज्यादा मज़बूत बनाया.
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करना होगा
प्रधानमंत्री के इस स्वदेशी भाव से चीन के साथ सद्भाव होगा या दुर्भाव. ये तो आने वाला समय बताएगा. गौरतलब है कुछ बड़े देशी उद्योगों को छोड़कर देश के समस्त उद्योगों पर चीन का कब्ज़ा हो गया था. आज भी कई उन सेक्टर्स पर चीन का वर्चस्व है. कुछ अन्य देशों की भी सैकड़ों कंपनियां भी हैं. जो हमें आज़ादी के बाद किये एक अघोषित सौदेबाजी में नेहरू-गांधी माडल द्वारा उपहार स्वरूप मिले थे. देश की इस बुरी स्थिति के बावजूद कूटनीतिज्ञ प्रधानमंत्री ने अपने सम्भाषण में चीन का नाम सीधे तौर पर नाम तो नहीं लिया परन्तु लोकल-वोकल-ग्लोबल का नारा जरूर दे दिया. मतलब सबकुछ स्पष्ट है.
परन्तु केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने चीन के खिलाफ एक कड़ा स्टैंड लिया. उन्होंने चीन को धो डाला. खूब बोले. जमकर बोले. खुलकर बोले चीन के खिलाफ. गडकरी का कहना था, हमें अपने एमएसएमई को मजबूत करना होगा. चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करना होगा. तभी हम स्वावलंबी बन सकते हैं. हमें प्रधानमंत्रीजी की बातों पर पुरजोर अमल करना होगा. इसलिए 20 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भरता पैकेज में 3 लाख करोड़ सिर्फ एमएसएमई सेक्टर को दिया गया है. ये बात दीगर है पिछली कई नीतियों से एक सेक्टर को एक बीमारी ने जकड़ लिया था. परन्तु मोदी जी की नई इच्छा शक्ति से उस सेक्टर को नई संजीवनी मिलेगी.
इस तरह से चीन भारत के छोटे-मझौले उद्योगों को पर किया कब्जा
सबको पता है करीब 33 साल पहले से चीन ने धीरे-धीरे अपने स्टाइल में भारत के छोटे-मझौले उद्योगों को एक तरह से प्रायः समाप्त ही कर दिया था. हम लगभग पूरी तरह से चीन पर निर्भर हो गए थे. आम जनता चीन के विरोध में होती थी तो सरकारी अमला प्रायः चुप ही रहता था. पर अब तेजी से बदली हुयी परिस्थितियों में सरकार और जनता एक सुर में आ गये हैं. स्वाभाविक है इससे नए समग्र विकास का एक बड़ा सुर व ताल निकलेगा, जो विश्व बाज़ार पर राज़ करेगा. वैसे भी करीब 500 बड़ी विदेशी कम्पनियां चीन से हटकर भारत की ओर अपने कदम बढ़ा चुकी हैं. इसे हम नए भारत के लिए शुभ संकेत कह सकते हैं. इसका दावा केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावडे़कर भी कर चुके हैं.
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चीन बाज़ार के बड़े प्रभाव के सन्दर्भ में मैं 1998 के एक विदेश यात्रा का जिक्र करना चाहूंगा. मैं भारत के राष्ट्रपति डॉ केआर नारायणन के साथ युरोप के दौरे पर गया था. साथ में उस वक़्त केन्द्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी( तब विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे) भी साथ थे. कई अन्य पत्रकार भी थे. पीआईबी के वरिष्ठ अधिकारी मनीष देसाई साथ में थे. दूरदर्शन के भूपिंदर कोइंथाला व राष्ट्रपति के प्रेस सचिव व उप प्रेस सचिव टीपी सीताराम और के सतीश नम्बूदरीपाद भी थे. भारतीय विदेश सेवा के सबसे स्मार्ट अफसर कहे जाने वाले सुनील लाल हमारे संयोजक थे. हम जर्मनी, तुर्की, पुर्तगाल और लक्सेम्बर्ग के दौरे पर थे. हमने जहां भी देखा. चीनी सामानों का बोलबाला था. हर रेंज में हर दाम में. सब चकित थे. परन्तु उत्पाद की कोई गारंटी नहीं.
अब वो पुरानी दोमुंही सरकारें नहीं हैं देश में
जैसा कि आज की परिस्थिति में हमारे प्रधानमन्त्री मोदी ने अपने सन्देश में गारंटी व गुणवत्ता पर जोर देने के लिए कहा है. तभी लोकल उत्पाद चीन से भी बेहतर बनेगा और ग्लोबल भी. 2007 में अमेरिका व कनाडा के बाजारों के बारे में ऐसा ही देखा और सुना. वाशिंगटन स्थित राष्ट्रपति निवास के पास कुछ दुकानों पर अमेरिका का झंडा भी चीन निर्मित्त दिखा था. छोटी से बड़ी वस्तु. सब चीन ही चीन. पता नहीं क्या जादू था चीन का. लेकिन ऐसा लगता है अब चीन का जादू उतरने लगा है कई देशों से. भारत से भी. अमेरिका से भी. उतरना भी चाहिए. अब बहुत हो चुका. क्योंकि वो गुपचुप मिलने वाली पुरानी दोमुंही सरकारें नहीं हैं देश में. जो भी है खुला है. सब कुछ पारदर्शी है.
भारत से चीन को पिछले दो महीनों में बड़ा झटका लगा है. बताया जाता है चीन को भारत से करीब 2 बिलियन डॉलर का झटका लगा है. देखिये, ये कैसा चमत्कार है. मात्र 2 महीनों में भारत में मास्क और पीपीई जैसे महवपूर्ण किट बनाये जाने लगे हैं. वो भी प्रति माह 2-3 लाख की संख्या में. जिन उत्पादों पर कभी सिर्फ चीन का एकाधिकार था, उस पर अब भारत का कब्ज़ा हो जायेगा. कोरोना युद्ध से जुड़े कई सामानों का निर्माण भारत में पहली बार होने लगा है. इससे चीन बैचेन हो गया है. तिलमिला गया है. भविष्य में होने वाले अन्य बड़े आर्थिक नुक्सान की आशंका से छटपटा रहा है. शायद इसलिए चीन ने उस हार का बदला पाकिस्तान के रास्ते भारत की हंदवाड़ा घटना से लेने की कोशिश की है.
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दवा निर्माण में तो भारत ने विश्व स्तर पर अपना झंडा फहरा दिया है. अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को भी दवाइयों के लिए भारत से गुहार लगानी पड़ी. भारत ने अपने विशाल हृदय का परिचय दिया. अपने सभी पड़ोसियों का भी खूब ख्याल रखा, एक बड़े भाई के नाते. और तो और नमकहराम पाकिस्तान को भी दवा से मदद की, परन्तु वो सुधरने से रहा.
ऐसा लग रहा है कि कोरोना काल भारत के लिए एक वरदान के तौर पर आया है, तभी तो प्रधानमंत्री मोदी ने इस आपदा को अवसर में बदलकर हर भारतीयों जीवन शैली को बदलने की कोशिश की है और कर रहे हैं परन्तु प्रधानमंत्री के इस नए अभियान के बारे में विरोधियों का मानना है कि आज तक प्रधानमंत्री मोदी का कोई भी जन उपयोगी कार्यक्रम पूरी तरह से सफल नहीं हो सका है, चाहे वो मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, मुद्रा योजना, स्टैंड अप इंडिया आदि जैसी महत्वाकांक्षी योजनायें हो. क्या वे योजनायें देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए नहीं थीं. यदि थीं तो ये फिर 20 लाख करोड़ का नया पैकेज क्यों? इसका मतलब कि वे सारी योजनायें असफल हो गयीं? या अपने लक्ष्य से भटक गयी? इसके बारे में भी प्रधानमंत्री मोदी को देश की जनता के लिए अपने मंत्रियों और अफसरों से पूरा लेखा-जोखा मांगना चाहिए. जो कि समय की जरूरत है. देश कल्याण के लिए अति आवश्यक भी. परन्तु ये आत्मनिर्भर भारत अभियान तो भारत को स्वयं से जोड़ने व जुड़ने का है. चीन और अन्य देशों के उत्पादों से भारत को मुक्त होने का है. विश्व स्तर पर भारत को विश्व गुरु बनाने का है.
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