समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 9जुलाई। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार को बहुमत हासिल हो चुका है। महाराष्ट्र के नवनिर्वाचित विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ना केवल एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले विधायक दल को शिवसेना विधायक दल के रूप में स्वीकार कर चुके हैं बल्कि इस गुट के सचेतक भरत गोगावले की शिकायत पर शिवसेना के शेष विधायकों को नोटिस देने पर विचार कर रहे हैं। आदित्य ठाकरे के नेतृत्व वाले शिवसेना के शेष विधायक दल की संख्या 15 है। एकनाथ शिंदे अपना नेता दिवंगत बाला साहब ठाकरे को और ठाणे शिवसेना के भूतपूर्व और दिवंगत अध्यक्ष जिला अध्यक्ष आनंद दिघे को करार दे रहे हैं। उनका गुट उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के विरुद्ध तो कुछ भी नहीं बोल रहा लेकिन शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राऊत को लेकर उनकी तरफ से व्यंग्य बाण भी दागे गए हैं और कड़ी बातें भी की गई हैं। जिस तरह के हालात हैं उसमें उद्धव ठाकरे को शिवसेना बचाने के लिए सपरिवार एकनाथ शिंदे गुट से शरणागत होने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं दिखाई देता।
शिवसेना पर पिछले चार पीढ़ियों से ठाकरे परिवार का नियंत्रण रहा है। शिवसेना यानी ठाकरे और ठाकरे का मतलब शिवसेना यही समीकरण साफ तौर पर रहा है। किसी ने चंद दिनों पहले यह कल्पना भी नहीं की होगी कि शिवसेना में ठाकरे परिवार को हाशिए पर फेंक दिया जाएगा और जब उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे और रश्मि ठाकरे की आलोचना होगी तब शिव सैनिकों का बड़ा वर्ग विरोधियों के खेमे में समर्थन जाहिर करेगा। शिवसेना पर ठाकरे परिवार की चार पीढ़ियां कहने पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन जो शिवसेना और ठाकरे परिवार को जानता है वह इस तथ्य से अवगत है शिवसेना बनाने की प्रेरणा और उसका नामकरण शिवसेना प्रमुख के समाज सुधारक पिता केशव उपाख्य प्रबोधनकार ठाकरे ने की थी।
लंबे समय तक उन्होंने शिवसेना की गतिविधियों का मार्गदर्शन किया था। इसलिए यह माना जाना चाहिए की प्रबोधनकार के जीवन काल में शिवसेना पर उनकी छाप थी। प्रबोधनकार हिंदुत्व के खुले समर्थक थे पर उनकी संगत समाजवादियों और रयत आंदोलन से प्रभावित थी। इसलिए शिवसेना का पहला गठबंधन मुंबई महानगर पालिका में मधु दंडवते के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी से होता है। हालांकि यह गठबंधन बेहद अल्पजीवी रहता है। प्रबोधनकार के बाद बाला साहब ने शिवसेना पर अपना पूर्ण नियंत्रण तो रखा पर कभी किसी राजनीतिक विचारधारा से अस्पृश्यता का भाव नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने प्रैक्टिकल सोशलिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग, कांग्रेस आदि से भी सहजता से समझौते किए। उनका व्यक्तित्व 1987 तक मुंबई को बंद करने की क्षमता वाला एक प्रभावशाली नेता की थी। वे मराठी माणुस के मुंबई क्षेत्र में तारणहार की भूमिका में भी थे। किंतु शिवसेना का विस्तार महामुंबई के परिसर के बाहर नहीं था।
शिवसेना के मंच पर कांग्रेसी रामराव आदिक और कम्युनिस्ट कामरेड एसआर डांगे सहजता से आते थे। तब हिंदुत्व को लेकर बाला साहब ठाकरे का आग्रह कट्टर नहीं हुआ था। उन पर 1970 और 1984 में भिवंडी में सांप्रदायिक दंगे कराने का आरोप लग चुका था। तब भी अब्दुल रहमान अंतुले के लिए भी बालासाहेब ठाकरे से राजनीतिक मैत्री सहज थी ।1985 में महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के समय जॉर्ज फर्नांडिस की जनता पार्टी, शरद पवार की कांग्रेस(एस) और प्रमोद महाजन के नेतृत्व वाली भाजपा ने कांग्रेस के विरोध में पुरोगामी लोकतांत्रिक दल का गठन किया था। तब शिवसेना प्रमुख गठबंधन जॉर्ज फर्नांडिस और शरद पवार के टेलीफोन की प्रतीक्षा करते हुए मातोश्री पर ही बैठे रह गए और उनके मित्रों में सीटों का बंटवारा हो गया। तब मुंबई महानगरपालिका पर शिवसेना प्रभावी थी किंतु अपने बूते छगन भुजबल के अलावा किसी को विधानसभा चुनाव नहीं जिता पाई।
1987 में जब विले पार्ले उपचुनाव में रमेश प्रभु को मैदान में उतारकर शिवसेना ने हिंदुत्व का हुंकार भरा तो परिणाम आया कि शिवसेना मुंबई से बाहर विस्तार करने की क्षमता पा गई। 1987 के विले पार्ले उपचुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषांगिक संगठनों ने खुलकर शिवसेना का समर्थन किया था। इस चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पूजनीय बाला साहब देवरस, शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के संपर्क में आए। विश्व हिंदू परिषद के रमेश मेहता के घर पर दोनों की भेंट हुई। हिंदुत्व के मुद्दे पर साथ चलने का संकल्प हुआ। तब प्रमोद महाजन के नेतृत्व में भाजपा में शिवसेना से समझौते को लेकर चर्चा शुरू हुई। उन दिनों शिवसेना के विधायकों की संख्या थी दो और भारतीय जनता पार्टी के विधायकों की संख्या 14 थी। शिवसेना में निर्णय अकेले शिवसेना प्रमुख लेते थे, यह सत्य है। किंतु तत्कालीन शिवसेना नेताओं के परामर्श के बिना नहीं। शिवसेना को तो महाराष्ट्र में विस्तार का लाभ मिल गया था और मुंबई में हिंदुत्व की शक्ति खड़ी करना यह संघ के विचार दर्शन का भी संकल्प था। भाजपा के तब 30 संगठनात्मक जिले हुआ करते थे। सभी जिला कार्यसमितियों में शिवसेना से गठबंधन के मुद्दे पर चर्चा हुई। पदाधिकारियों में इस मुद्दे पर मत विभाजन भी हुआ। 29 जिलों के संगठनों में शिवसेना से गठबंधन के पक्ष में बहुमत था, सिर्फ चंद्रपुर जिले में दोनों के पक्ष में 50 -50 फ़ीसदी लोग थे।
यह गठबंधन विचारधारा, कार्यकर्ताओं के अंतर्संबंध , राजनीतिक आवश्यकता और सामाजिक सेवा के बल के रूप में प्रबल था। इसी कारण दोनों दलों के नेताओं में तमाम मतभेदों के बावजूद यह गठबंधन 25 वर्षों से अधिक समय तक चला। बालासाहेब ठाकरे तार्किक मुद्दों पर ही विवाद करते थे और उनका इरादा गठबंधन को क्षति न पहुंचाने का स्पष्ट होने के नाते भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उनका सम्मान करता था। ऐसे दर्जनों उदाहरण सप्रमाण दिए जा सकते हैं। जिस भारतीय जनता पार्टी ने बालासाहेब के शिष्य मनोहर जोशी, नारायण राणे और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया वह बाला साहब के पुत्र उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने में क्यों संकोच करती? आज बाला साहब के वैचारिक विरासत के शिलेदार होने वाले एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने में भाजपा ने रंच मात्र भी संकोच नहीं किया। सो भाजपा पर अनर्गल प्रलाप करने वाली शिवसेना की मातोश्री मंडली स्वयं आत्म चिंतन करे। गठबंधन धर्म का निर्वाह करते समय बालासाहेब ठाकरे ने चिमूर की विधानसभा सीट पर विवाद नहीं किया। वहां भाजपा की बातों को सहजता से स्वीकार लिया। ठाणे की लोकसभा सीट परंपरा से भाजपा की रही है। रामभाऊ म्हालगी ठाणे से सांसद हुआ करते थे। 1989 और 1991 के चुनाव में भाजपा के राम कापसे ठाणे से प्रचंड बातों से सांसद चुने गए थे।
पर जब आनंद दिघे ने भाजपा से वह सीट शिवसेना के लिए मांगी तो भाजपा ने एक पल का भी संकोच नहीं किया। 1989 में जब पहला गठबंधन हुआ तब शिवसेना को लोकसभा की केवल चार सीटें मिली थी। 1991 में सीटों की संख्या डेढ़ दर्जन तक पहुंच गई। अभी पिछले चुनाव में ही जब मोदी लहर चरम पर थी तब भी पालघर की अपनी सीट उद्धव ठाकरे भाजपा ने उम्मीदवार सहित शिवसेना को सौंप दिया था। भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व ‘चौकीदार चोर है !’ जैसे उद्धव ठाकरे के गैर जिम्मेदाराना बयानों के बावजूद शिवसेना को गठबंधन में बनाए बैठा था। 1989 में बना शिवसेना- भाजपा गठबंधन 2014 में शिवसेना की जिद के कारण टूटा। 2009 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना 171 और भाजपा 117 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी। 2014 में प्रचंड मोदी लहर के कारण पिछले चुनाव की तुलना में भाजपा केवल 9 अधिक विधानसभा सीटें मांग रही थी। भाजपा के नेताओं का कहना था कि शिवसेना भाजपा के लिए 126 सीटें छोड़ दे। शेष 152 सीटों में से वह गठबंधन के अन्य साथियों को भी स्थान दे दे। शिवसेना नेतृत्व चाहता तो 5 सीटों में गठबंधन के अन्य साथी भी मान जाते। तब आदित्य ठाकरे की जिद पर शिवसेना 150 प्लस का नारा लगाए बैठी थी।
गठबंधन आदित्य ठाकरे की जिद के कारण टूट गया। चुनाव परिणाम आए तो भाजपा अकेले के बूते 123 सीटों पर कामयाब हुई थी। यदि शिवसेना ने भाजपा का प्रस्ताव स्वीकार लिया होता तो तय था कि भाजपा 126 सीटों पर चुनाव लड़ के 123 तो नहीं जीतती और शिवसेना 145 सीट लड़कर 100 का आंकड़ा जरूर पार करती। तब उद्धव ठाकरे सहज मुख्यमंत्री बन जाते। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनने का सपना लंबे समय से सहेजे हुए थे। उनका यह सपना पूरा हो जाता और मुख्यमंत्री का पद भी रह जाता । 2014 की चुनाव प्रचार में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कह दिया कि शिवसेना के विरुद्ध भाजपा चुनाव भले अलग से लड़ ले लेकिन उनके खिलाफ कुछ नहीं बोला जाएगा। तब उद्धव ठाकरे ने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अफजल खान की सेना कहकर अनायास उकसाया। चुनाव परिणाम आने के बाद भी जिस सहजता से भाजपा के पास प्रस्ताव लेकर सरकार बनाने की पहल की आवश्यकता थी वह करने के बजाए भाजपा के विरुद्ध बातें की गईं। एकनाथ शिंदे को ही विपक्ष का नेता बना दिया गया। जब उद्धव ठाकरे को लगा शिवसेना के बिना भी देवेंद्र फडणवीस की सरकार आसानी से विधानसभा में बहुमत हासिल कर सरकार संचालित कर लेगी, तब वह समझौते का प्रस्ताव लेकर आगे बढ़े।
परिणाम था की कड़ा राजनीतिक संवाद हुआ और मंत्रिमंडल में अपमानित होने के भाव से शिवसेना को शामिल होना पड़ा। 2014 से 2019 के कालखंड में बारंबार शिवसेना और सामना भाजपा और मोदी सरकार पर प्रहार कर भाजपा के कार्यकर्ताओं- पदाधिकारियों को दुखी करते रहे। इसका परिणाम 2019 के विधानसभा चुनाव में भी दिखा जब 200 से अधिक सीटें गठबंधन के पक्ष में जाने के संकेत लोकसभा चुनाव में दिखाई दिए थे तब विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने भाजपा की कई सीटों को भितरघात से निपटाने का प्रयास किया। जब यह संदेश भाजपा के कार्यकर्ताओं को गया तो शिवसेना के प्रत्याशियों के प्रचार में भाजपा का कार्यकर्ता भी शिथिल हो गया। इसका परिणाम था कि अकेले लड़ कर 123 सीट पाने वाली भाजपा 105 और 64 सीटें पाने वाली शिवसेना 56 सीटों पर सिमट गई। तब भी स्पष्ट बहुमत गठबंधन के पक्ष में था। यहीं से उद्धव ठाकरे की सत्ता लोलुपता ने एक बार फिर उन्हें कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के करीब लाया।
सनद रहे कि 2014 में भी उद्धव ठाकरे के सहयोगी मिलिंद नार्वेकर कांग्रेस के अहमद पटेल से सरकार शिवसेना के नेतृत्व में बनाने की वार्ता कर रहे थे। तब उन्हें शरद पवार ने ही गच्चा दे दिया था। इस बार वह शरद पवार को अपना तारण हार मानने लगे। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए और सरकार का नियंत्रण एनसीपी के पास चला गया। विधानसभा में इन तथ्यों का एकनाथ शिंदे ने जिस तरह खुलासा किया है वह साफ बता रहा है शरद पवार और उनके साथी शिवसेना के विधायकों को निपटा कर राष्ट्रवादी की विधायक संख्या 100 के पार कराने की योजना पर काम कर रहे थे। जिन विधायकों को 2 साल बाद चुनाव का सामना करना था, वे जान रहे थे पिछले चुनाव में वोट तो उन्हें नरेंद्र मोदी के चमत्कारिक चेहरे और हिंदुत्व के नाम पर मिला है। आगामी चुनाव में उनकी जीत का मार्ग दुष्कर था।
हिंदुत्व के मुद्दे पर जिस तरह शिवसेना मुंह मोड़े खड़ी थी उसकी भी खदबदाहट थी और इसी खदबदाहट ने भगवा धारियों को सेकुलर शिवसेना के खिलाफ खड़ा कर दिया। परिणाम सामने है। उद्धव ठाकरे और उनकी मंडली निर्वाचित प्रतिनिधियों में हाशिए पर है। आने वाले दिनों में उन्हें संगठन पर नियंत्रण बनाए रखने में भी संघर्षों का सामना करना होगा। क्या उद्धव ठाकरे अपने वैचारिक हिंदुत्व को फिर से अपना शस्त्र बना पाएंगे? यदि नहीं तो अब शिवसेना हिंदुत्व पर तो रहेगी पर उस पर ठाकरे परिवार के उद्धव वंश की छाप खत्म हो जाएगी।
साभार- जनसत्ता, प्रेम शुक्ल
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