सचिन बुधौलिया।
विश्व की पहली समाचार एजेंसी का प्रादुर्भाव 19वीं सदी में हुआ था और समाचार एजेंसियों के इतिहास पर नज़र डालें तो यह साधन समाचारों के संप्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ शासन के प्रभाव के विस्तार का भी एक सशक्त माध्यम होतीं हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार, प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध तथा उसके बाद शीतयुद्ध काल में वर्चस्व की लड़ाई में समाचार एजेंसियों की भूमिका बहुत अहम रही और रॉयटर्स, एपी, एएफपी, ब्लूमबर्ग जैसी समाचार एजेंसियों और बीबीसी रेडियो सेवा ने पाश्चात्य विचारों एवं आर्थिक प्रभाव को विश्व भर में स्थापित किया। खाड़ी युद्ध प्रथम एवं खाड़ी युद्ध द्वितीय, 11 सितंबर 2001 के बाद आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक लड़ाई में भी जनमत तैयार करने में इन समाचार एजेंसियों की बड़ी भूमिका रही है।
कुछ समय पहले एक लैटिन अमेरिकी देश के राजदूत ने भारतीय पत्रकारों से संवाद कार्यक्रम में अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए कहा कि उनके देश के लोग भारत को तथा भारत के लोग उनके देश को अमेरिकी एवं अन्य पश्चिमी देशों की न्यूज़ एजेंसियों की नज़र से देखते एवं समझते हैं इसलिए दोनों ओर एक दूसरे के प्रति नज़रिए में शुद्धता नहीं है। इसे ठीक करने के लिए ज़रूरी है कि हम एक दूसरे को अपनी अपनी दृष्टि से देखें और समझें। उनका आशय उनके देश में हो रही राजनीतिक गतिविधियों की विदेशी न्यूज एजेंसियों द्वारा पक्षपात पूर्ण रिपोर्टिंग किये जाने को लेकर था।
भारत में यूं तो आज़ादी के बाद से दो प्रमुख समाचार एजेंसियां रहीं हैं, एक पीटीआई और एक यूएनआई। इस समय संयोग से देश में ऐसी सरकार है जो भारत के प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने के प्रयास में लगी है। प्रधानमंत्री अब तक 80 से अधिक देशों की यात्राएं कर चुके हैं और विश्व के बड़े मंचों पर भारत के प्रभाव को स्थापित करने में कामयाब भी हुए हैं लेकिन इस प्रयास को स्थायित्व देने में भारतीय समाचार एजेंसियों की भूमिका को पहचानने एवं उसका दोहन करने की बहुत ज़रूरत है। आज के डिजीटल एवं विज़ुअल के युग में भी प्रिंट की एजेंसी की प्रामाणिकता कहीं अधिक है। प्रिंट न्यूज़ एजेंसी की कॉपी को आधिकारिक दस्तावेज के समान महत्व प्राप्त है और यूएनआई एवं पीटीआई निजी स्वामित्व के बावजूद राष्ट्रीय संस्थान के रूप में जानी जातीं हैं।
प्रधानमंत्री की मुहिम के अनुरूप यदि विभिन्न देशों में भारतीय समाचार एजेंसियों को विस्तार करने एवं ग्राहक प्राप्त करने का अवसर मिले तथा वैश्विक घटनाओं एवं आर्थिक परिदृश्य की स्वतंत्र रिपोर्टिंग एवं विश्लेषण करने का मौका मिले तो अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका जैसा वैश्विक प्रभाव भारत भी हासिल कर सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम एवं विश्व शांति की अवधारणा का विश्व व्यापी प्रसार, दुनिया के सबसे गरीब हिस्से की कठिनाइयों का समाधान दे सकता है। सांस्कृतिक सहयोग, जनता के बीच सहयोग को बढ़ावा भारतीय दृष्टिकोण से मिल सकेगा। योग आयुर्वेद आदि भारतीय विरासत को दुनिया के अन्य हिस्सों में पहुंचाया जा सकेगा।
देश के अंदर भी फेक न्यूज की बुराई और सोशल मीडिया पर कीचड़ उछालने वाली फर्ज़ी खबरों का मुकाबला ऐसे विश्वसनीय समाचार माध्यमों को बल देकर किया जा सकता है जो तथ्यों पर आधारित केवल सादगी पूर्ण समाचार देते हैं और उन समाचारों में वैचारिक झुकाव कहीं नहीं होता है। किसी भी सरकार के लिए हर समाचार पत्र में निष्पक्षता एवं वस्तुपरकता सुनिश्चित करना संभव नहीं होता है लेकिन समाचार एजेंसी में ये नैसर्गिक गुण होते हैं जिन्हें सशक्त बनाना सरकार के लिए बहुत मुश्किल भी नहीं होता है।
सरकार ने हाल ही में कुछ फर्जी समाचार पत्रों के पंजीकरण रद्द किये हैं जो केवल सरकारी दस्तावेजों की खानापूरी के लिए अपने अखबारों की चंद कॉपियां छापते थे और विज्ञापन की मोटी रकम सरकार से वसूलते थे। इस प्रकार से सरकार ने देश के खजाने की लूट को रोका है। इस पैसे का कुछ भाग अगर समाचार एजेंसियों पर व्यय किया जाये तो एजेंसियां मज़बूत हो सकतीं हैं। सरकारी विज्ञापन के संबंध में कुछ साल पहले जारी दिशानिर्देश बहुत अहम थे कि यूएनआई, पीटीआई या हिन्दुस्थान समाचार की सेवा लेने वाले अखबारों को ही सरकारी विज्ञापन मिलेंगे लेकिन निहित स्वार्थ प्रेरित लोगों के दबाव में उसे वापस ले लिया गया।
प्रामाणिकता के कारण समाचार एजेंसियों की रिपोर्टों को सर्वाधिक महत्व देने वाली प्रसार भारती का सालाना बजट करीब तीन हजार करोड़ रुपए है जिनमें समाचार एजेंसियों के लिए करीब 16-17 करोड़ रुपए ही आवंटित किये गये हैं जो मात्र लगभग आधा प्रतिशत ही है। इसके बावजूद लागत में कटौती के प्रयासों की कैंची समाचार एजेंसियों पर ही चलाने की कोशिश की जा रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि केन्द्र एवं राज्य की सरकारें समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं को सस्ता कागज़ उपलब्ध कराने से लेकर हज़ारों करोड़ रुपए के विज्ञापन प्रदान करतीं हैं, भले ही अखबार एवं पत्रिकाएं उस विज्ञापन से जुड़े कार्यक्रमों एवं घटनाओं की रिपोर्टिंग नहीं करते। ऐसे अखबारों एवं पत्रिकाओं की तुलना में समाचार एजेंसियों को सरकार की ओर से मिलने वाला सहयोग नगण्य है। रॉयटर्स, एपी, ब्लूमबर्ग, एएफपी, शिन्हुआ, स्पूतनिक, क्योदो, एबीएन आदि समाचार एजेंसियों को उनके देशों की सरकारें भरपूर आर्थिक सहयोग देतीं हैं ताकि वे उन देशों के हितों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देतीं रहें। गैर पश्चिमी देशों में चीन, रूस, जापान, ब्राज़ील आदि देशों ने समाचार एजेंसी की इस ताकत का दोहन करने की दिशा में प्रभावी कदम बढ़ाए हैं।
समकालीन विश्व राजनीतिक मंच पर प्रभाव डालने वाले देशों में भारत ही ऐसा देश है जो इस दिशा में पहल करने में उदासीन दिख रहा है। अच्छा होगा कि सरकार भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के लिए सक्षम एक अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी तैयार करने के लिए संजीदगी से प्रयास करे जो आर्थिक रूप से सक्षम हो। पीटीआई या यूएनआई में से किसी एक को इसके लिए चुना जा सकता है।
यह न्यूज एजेंसी अधिक सक्षम और व्यापक हो और विश्व के प्रत्येक देश में इसकी सशक्त उपस्थिति हो। 21वीं सदी की जरूरत के अनुसार बिग डेटा, मल्टी मीडिया, आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस, 5जी/6जी, इंटरनेशनल कार्पोरेट इंफाॅर्मेशन, एनर्जी, हेल्थ, साइंस एंड टेक्नोलॉजी, इनोवेशन, आदि आदि सब क्षेत्रों में अग्रणी बने।
हम जानते हैं कि भारत कारोबार के एक बड़े केंद्र के रूप में उभर रहा है। ऐसे में इस न्यूज एजेंसी की एक पृथक बिजनेस न्यूज इकाई ब्लूमबर्ग या रायटर्स की टक्कर की बनायी जाये। टेक्नोलॉजी एवं इंडस्ट्री 2.0 पर भी अलग से एक विश्व स्तर की न्यूज सर्विस बनाने की आवश्यकता है।
Comments are closed.