जंग खत्म, लेकिन मौत अब भी ज़िंदा है! सीमावर्ती इलाकों में बिखरा है UXO का खौफनाक मलबा — हर कदम पर मंडरा रहा है विस्फोट का खतरा!

जीजी न्यूज ब्यूरो
नई दिल्ली,15 मई ।
जंग तो थम गई… गोलियों की आवाज़ अब नहीं गूंजती… लेकिन ज़मीन के नीचे मौत अब भी सांस ले रही है! सीमावर्ती गांवों में, जहां अब बच्चे खेलते हैं, किसान खेतों में लौटे हैं — वहां हर पग एक जिंदा बम पर पड़ सकता है।
जी हां, हम बात कर रहे हैं UXO — Unexploded Ordnance, यानी अविश्व्फोटित बमों, गोले और बारूदी सुरंगों की, जो जंग के बाद भी ज़मीन में दबे रह जाते हैं और किसी भी पल विनाश का विस्फोट बन सकते हैं।

जब जंग होती है, तो हजारों गोले, रॉकेट और बारूद दागे जाते हैं। लेकिन कई बार ये विस्फोट नहीं करते — तकनीकी खामी या अन्य कारणों से। ऐसे बचे हुए हथियारों को ही कहते हैं UXO
ये न दिखते हैं, न आवाज़ करते हैं — लेकिन छूते ही फट सकते हैं!

LOC के पास, अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर से लगे गांव, और कुछ पूर्वोत्तर राज्य — आज भी UXO के साए में जी रहे हैं।

  • एक मासूम बच्चा जो गेंद उठाने गया, हाथ में बम फट गया!

  • एक किसान जो हल चला रहा था, ज़मीन के अंदर दबा UXO एक्टिवेट हो गया — खेत की मिट्टी लाल हो गई!

  • एक बंजारा परिवार, जिसने लकड़ी चुनते हुए आग जलाई — पास पड़ा UXO विस्फोट कर गया!

इन घटनाओं की आधिकारिक गिनती कम है, लेकिन हकीकत बेहद डरावनी है।

 एक छोटा UXO भी 50 मीटर तक जानलेवा हो सकता है।
 बड़े UXO में तो 1 टन तक विस्फोटक होता है — यानी एक बस्ती को उड़ा सकता है।
 इनमें से कुछ में chemical agents होते हैं, जो ज़हर बनकर हवा में घुल सकते हैं।

सबसे खतरनाक बात — ये कब फट जाए, कोई नहीं जानता!

भारतीय सेना और विशेष बम निरोधक दस्ते ही इस काम में लगे हैं। लेकिन—

 इलाके दुर्गम होते हैं
 UXO ज़मीन में गहराई तक दब जाते हैं
 लोकल लोगों को जानकारी नहीं होती, और कई बार बच्चे इन्हें खिलौना समझ बैठते हैं

“हम हर साल सैकड़ों UXO निकालते हैं, लेकिन हजारों अब भी दबे पड़े हैं…”
– एक बम डिस्पोज़ल अफसर की चौंकाने वाली स्वीकारोक्ति!

  • UXO मैपिंग जरूरी है — यानी कहां-कहां बम गिरे थे, उसका डिजिटल रिकार्ड।

  • ग्रामीणों को ट्रेनिंग दी जानी चाहिए — ताकि वे संदिग्ध वस्तुओं को पहचान सकें।

  • सरकार को फंड और स्पेशल टीम बनानी चाहिए UXO क्लियरेंस के लिए।

जंग सिर्फ बारूद से नहीं लड़ती — उसके जख्म सालों तक ज़मीन में दबे रहते हैं।
सीमावर्ती इलाकों के लोग हर रोज़ उस अदृश्य मौत के साथ जीते हैं, जो न दिखती है, न सुनाई देती है — बस एक धमाके में ज़िंदगी बदल देती है।

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