तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), जिसे पश्चिम बंगाल राजनीति में एक सशक्त समूह समझा जाता है, इस समय अंदरूनी लड़ाइयाँ और अनुशासनहीनता के मुद्दे से ग्रसित है। अगले विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी में नेताओं के व्यवहार ने खुली और निजी लोकप्रियता को ठोकर लगाई है, बल्कि इसके संगठन के ढांचे को भी सवाल उठा दिया है
शुरुआत इस विवाद की 3 अप्रैल को हुई जब लोकसभा में टीएमसी के मुख्य सचेतक (चीफ व्हिप) कल्याण बनर्जी ने पार्टी सांसद कीर्ति आज़ाद पर नाराज़गी जाहिर की। हाल ही में टीएमसी में शामिल हुए कीर्ति आज़ाद ने दिल्ली स्थित एक निजी मिठाई ब्रांड “संदेश” को संसद भवन परिसर में स्टॉल लगाने की अनुमति दिलाने के लिए पार्टी सांसदों से समर्थन मांगा था। इतना ही नहीं, उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से भी इस मामले में बात की।
कल्याण बनर्जी ने इस पर आपत्ति जतायी और कहा कि यदि पार्टी को किसी ब्रांड का समर्थन करना है, तो वह पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा चलने वाला “बंगाल ब्रांड” — बिश्व बांग्ला — होना चाहिए, न कि कोई निजी कंपनी। उन्होंने इंडिया टुडे से बातचीत में विवाद की पुष्टि तो की, लेकिन ज़्यादा जानकारी देने से इनकार कर दिया।
के सामला फिर बिगड़ा जब 4 अप्रैल को टीएमसी का एक नुमाइंदग मंडल चुनाव आयोग के पास मतदाता पहचान पत्रों में कथित अस्सलियत के मामले को शिकायत दर्ज कराने गया। इस भ्रमण के दौरान कल्याण बनर्जी और पार्टी की सांसद महुआ मोइत्रा के मध्य विवादित बहस हो गई। कहा जा रहा है कि महुआ मोइत्रा का नाम उस ज्ञापन में नहीं था जिसे आयोग को पेश किया जाना था, और उन्होंने इसे व्यक्तिगत अपमान का मतलब माना।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह बहस मुश्किल ही नहीं थी, बल्कि व्यक्तिगत भी हो गई। दोनों सांसदों ने एक-दूसरे पर लापरवाह आरोप लगाए और सरेआम एक-दूसरे पर चुभती-चुभती छींटाकशी की, जिससे मीडिया और राजनीतिक विरोधियों को टीएमसी की अंदरूनी कलह पर सवाल उठाने का भरपूर मौका मिल गया।
इस घटना क्रम से तंग आकर पार्टी लीडर ममता बनर्जी को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने दोनों नेताओं पर फटकार लगाई और कड़े निर्देश दिए कि पार्टी के अंदरूनी मामले सार्वजनिक रूप से उछाले न जाएं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी अनुशासनहीनता पार्टी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाती है, खासकर जब चुनाव सिर पर हों।
यह विवाद दो नेताओं की व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है, लेकिन यह पार्टी के भीतर गहराते गुटबाजी और नेतृत्व संघर्ष का संकेत है। महुआ मोइत्रा, जिन्हें टीएमसी की तेजतर्रार और स्वतंत्र सोच वाली नेता माना जाता है, का उभरता प्रभाव पुराने नेताओं को खटकता रहा है। वहीं कल्याण बनर्जी जैसे नेता खुद को पार्टी की मूल विचारधारा और परंपराओं का संरक्षक मानते हैं। ऐसे में दोनों के बीच टकराव का यह पहला मौका नहीं है।
पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि इस तरह की घटनाएँ पार्टी के अनुशासन की कमी को दर्शाती हैं और इसका सीधा असर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं पर पड़ता है। भाजपा पहले ही इस मामले को मुद्दा बनाकर टीएमसी को एक “अव्यवस्थित और गुटों में बँटी पार्टी” बता रही है।
अब ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह पार्टी में अनुशासन कैसे बहाल करें और आंतरिक मतभेदों को चुनावी रणनीति पर हावी न होने दें। टीएमसी की ताकत हमेशा उसकी एकजुटता और सख्त नेतृत्व में रही है, लेकिन मौजूदा हालात में यह छवि कमजोर पड़ती दिख रही है।
अगर समय रहते इस अनुशासनहीनता और गुटबाजी पर काबू नहीं पाया गया, तो यह अंदरूनी कलह पार्टी को गंभीर नुकसान पहुँचा सकती है। राजनीति में छवि ही सब कुछ होती है, और फिलहाल टीएमसी की छवि एक ऐसे संगठन की बन रही है जो अपने ही लोगों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है।
अब ममता बनर्जी का वक्त है कि वह पार्टी के भीतर कड़ा अनुशासन लागू करे, अन्यथा यह अंदरूनी मतभेद पार्टी को चुनावी मैदान में हार की ओर ले जाएंगे — और यह क्षति नहीं विरोधियों के हवाले होगी, बल्कि पार्टी के भीतर ही होगा।
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