समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,22 अप्रैल। राहुल गांधी फिर अमेरिका जा रहे हैं। इस बार उन्होंने ब्राउन यूनिवर्सिटी में भाषण देना है। पिछली बार उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में भारत के लोकतंत्र पर सवाल खड़े किए थे, और अब फिर से वही सिलसिला दोहराया जाएगा—एक बार फिर विदेशी जमीन से भारत को बदनाम करने की कोशिश। लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है। और वह फर्क है अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ऐतिहासिक कार्रवाई।
ट्रंप ने अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की सरकारी फंडिंग को पूरी तरह फ्रीज कर दिया है। वजह? हार्वर्ड का रवैया। ट्रंप ने कहा—”कुछ नीतियों में बदलाव करो।” विश्वविद्यालय ने जवाब दिया—”हम कुछ नहीं बदलेंगे।” ट्रंप ने सीधा एक्शन लिया: 2.3 अरब डॉलर की फंडिंग पर रोक, और चेतावनी—”अगर नहीं सुधरे तो टैक्स छूट भी खत्म होगी और विदेशी छात्रों का दाख़िला भी बंद।”
अब प्रश्न यह है कि अमेरिका जैसी खुली व्यवस्था में एक पूर्व राष्ट्रपति जब ये समझ सकता है कि विश्वविद्यालय राजनीतिक ज़हर फैला रहे हैं, तो भारत सरकार क्यों अब तक आंख मूंदे बैठी है?
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) को अक्सर “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे देने वाले छात्रों का अड्डा माना जाता है। यहाँ न केवल विचारधारा के नाम पर देशविरोधी विचार व्यक्त होते हैं, बल्कि यह संस्थान कई वर्षों से उन ताकतों का अव公开 कैंप बना हुआ है जो भारत की संप्रभुता, सांस्कृतिक मूल्यों और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध अविस्मरणीय कार्यरत हैं।
हार्वर्ड अमेरिका में लिबरल एजेंडे का गढ़ बन चुका था, वैसे ही JNU और कुछ अन्य विश्वविद्यालय भारत में वामपंथी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अड्डे बन गए हैं। इन संस्थानों में शिक्षा की जगह अब आंदोलन, एजेंडा और राष्ट्र की छवि को धूमिल करने वाली गतिविधियाँ हो रही हैं।
राहुल गांधी का अमेरिका जाकर बार-बार भारत की आलोचना करना अब कोई नई बात नहीं हो गई है। दिसंबर 2023 में उन्होंने हार्वर्ड पर खड़े होकर भारत के लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न लगाए। उनके भाषणों में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर ऐसा एक नैरेटिव गढ़ा जाता है जो भारत को एक असहिष्णु, अल्पसंख्यक विरोधी और तानाशाही प्रवृत्ति वाला देश दिखाने की कोशिश करता है.
यह विडंबना है कि भारत सरकार द्वारा जनता के टैक्स से फंडिंग पाने वाले कुछ प्रोफेसर, छात्र और राजनीतिक नेता, देश की छवि खराब करने में सबसे आगे हैं—वो भी विदेशी धरती पर।ट्रंप ने अमेरिका के शिक्षा संस्थानों का तर्क दिया कि वे अब शिक्षा नहीं, बल्कि ‘एंटी-अमेरिकन ब्रेनवॉशिंग’ का केंद्र बन गए हैं। उन्होंने अमेरिकी शिक्षा विभाग तक को बंद करने का आदेश दे दिया। उन्होंने न केवल फंडिंग रोकी, बल्कि उस नैरेटिव को भी चुनौती दी जो अमेरिका की नींव को कमजोर कर रहा था।
सो सवाल उठता है: क्या भारत भी ऐसे संस्थानों की फंडिंग रोक सकता है जो राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अड्डे बन चुके हैं? क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम टैक्सपेयर्स के पैसे से चलने वाले संस्थानों से जवाब माँगे?
JNU, AMU और कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में जो हो रहा है, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि एक प्रकार की स्वच्छंदता है जिसमें देश को गालियाँ देना, सैनिकों का अपमान करना, और आतंकवादियों के समर्थन में रैलियाँ करना सामान्य बात बन चुकी है। ये संस्थान शिक्षा के मंदिर नहीं, वैचारिक युद्ध के मैदान बन गए हैं।
अब भारत सरकार को यह समझना होगा कि विश्वविद्यालयों को ही आर्थिक सहायता देना काफी नहीं है, लेकिन यह भी देखना होगा कि वह पैसा किस ओर जा रहा है। यदि वह फंड भारत विरोधी एजेंडे को हवा देने में इस्तेमाल हो रहा है, तो उस पर तुरंत रोक लगानी चाहिए।
डोनाल्ड ट्रंप ने जो किया, उसमें बहुत साहस था। अब भारत को भी यह दिखाई देना चाहिए। नहीं तो वह दिन नहीं दूर नहीं जब हमारे अपने विश्वविद्यालय ही भारत के विरोध की सबसे बड़ी प्रयोगशालाएं बन जाएंगी।
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