रियाद से वॉशिंगटन तक: क्या ट्रंप की ‘शैडो डिप्लोमेसी’ वैश्विक सुरक्षा को खतरे में डाल रही है?

पूनम शर्मा 

जब कूटनीति खतरा बन जाए , वॉशिंगटन की सड़कों पर बहा इसराइलियों का खून-वॉशिंगटन डीसी के एक म्यूज़ियम और इसराइली दूतावास के पास दो इसराइली नागरिकों की हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है। अमेरिकी राजधानी में इस प्रकार की हत्या केवल अपराध नहीं है—यह एक स्पष्ट संदेश है: अब आतंकवाद सीमाओं का मोहताज नहीं रहा।

ये घटना तब हुई जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में सऊदी अरब का दौरा किया, जहां उन्होंने कुछ ऐसे लोगों से भी मुलाकात की जिन पर एक दशक पहले तक आतंकवाद से संबंध होने का संदेह था। इसी के साथ खबरें हैं कि वॉशिंगटन में ट्रंप के सलाहकार मंडल में दो ऐसे लोगों को जगह दी गई है, जिनका अतीत भी चरमपंथ से जुड़ा बताया गया है।

इन घटनाओं को अलग-थलग मानना अब संभव नहीं है। यह एक वैश्विक परिवर्तन का संकेत है, जिसमें चरमपंथ को कूटनीतिक छूट दी जा रही है।

ट्रंप और सऊदी अरब: सौदेबाज़ी की नई भाषा

डोनाल्ड ट्रंप का ‘अमेरिका फर्स्ट’ नारा लंबे समय से वैश्विक कूटनीति में अस्थिरता पैदा करता रहा है। उनकी विदेश नीति परंपरागत सिद्धांतों की नहीं, बल्कि सौदेबाज़ी की भाषा में बात करती है। ट्रंप की हालिया सऊदी यात्रा इसी सोच की मिसाल है।

इस यात्रा के दौरान ट्रंप ने जिन लोगों से मुलाकात की, उनमें एक ऐसा व्यक्ति भी था जो एक समय अमेरिका की वॉचलिस्ट पर था। अब वही व्यक्ति “परिवर्तित” छवि में मध्य पूर्व में प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है।

क्या यह सिर्फ छवि निर्माण है? या वाकई कट्टरपंथियों को नई वैधता देने की शुरुआत?

वॉशिंगटन की सड़कों पर खून: इसराइल के लिए चेतावनी

सऊदी यात्रा के कुछ ही दिनों बाद वॉशिंगटन डीसी में दो इसराइली नागरिकों की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। घटना इसराइल दूतावास के करीब हुई, एक ऐसे क्षेत्र में जो अमेरिका में सबसे सुरक्षित माना जाता है।

इसराइली खुफिया एजेंसियों को शक है कि यह हमला पूर्व नियोजित था, और संभवतः हालिया कूटनीतिक बदलावों के बाद वैश्विक चरमपंथी नेटवर्क को मिली नई हिम्मत का नतीजा है।

इसराइल के एक सुरक्षा विशेषज्ञ ने कहा, “अगर वॉशिंगटन की सड़कों पर इसराइलियों का खून बह सकता है, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए खतरे की घंटी है।”

भारत की चिंता: रणनीतिक साझेदारी पर सवाल

भारत लंबे समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है और अमेरिका के साथ उसकी रणनीतिक साझेदारी इसमें एक अहम सहारा रही है। लेकिन ट्रंप की नई विदेश नीति दिशा भारत को असहज कर रही है।

भारतीय खुफिया सूत्रों के अनुसार, हाल के हफ्तों में खाड़ी देशों से जुड़े डिजिटल प्रचार और वित्त पोषण गतिविधियों में अचानक तेज़ी आई है, जिनका संबंध अलगाववादी तत्वों से हो सकता है।

भारत के लिए यह केवल कूटनीतिक चुनौती नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है। अगर अमेरिका चरमपंथ के खिलाफ अपनी सख्ती छोड़ देता है, तो भारत जैसे लोकतंत्रों को अकेले मोर्चा संभालना पड़ेगा।

वॉशिंगटन में चरमपंथ की छाया?

ट्रंप के सलाहकारों में दो ऐसे नाम सामने आए हैं जिनका अतीत उग्रपंथी विचारधाराओं से जुड़ा रहा है। भले ही ये नियुक्तियां आधिकारिक न हों, लेकिन

इन व्यक्तियों का बढ़ता प्रभाव अमेरिकी नीति निर्माण में चिंता का विषय है।

क्या यह वही अमेरिका है जिसने 9/11 के बाद चरमपंथ के खिलाफ वैश्विक लड़ाई का नेतृत्व किया था? या अब यह राष्ट्र उन तत्वों को जगह दे रहा है जिन्हें पहले खतरा माना जाता था?

लोकतंत्र बनाम लेन-देन की राजनीति

इस पूरी परिघटना का सबसे गहरा असर लोकतांत्रिक मूल्यों पर हो रहा है। जब चरमपंथियों को “रणनीतिक भागीदार” के रूप में वैधता दी जाती है, तो इससे आतंकवाद को अप्रत्यक्ष रूप से बल मिलता है।

ट्रंप की नीति आज “डील-मेकिंग” पर केंद्रित है—भले ही वह सौदा किसी भी कीमत पर क्यों न हो। सवाल यह है कि जब आप शांति के नाम पर उग्रपंथियों को गले लगाते हैं, तो क्या आप सच में शांति की सेवा कर रहे हैं?

इस नए समीकरण से कौन फायदे में है?

जो देश या गुट इस नई कूटनीतिक संरचना से लाभान्वित हो रहे हैं, वे लोकतंत्र समर्थक नहीं हैं। इनमें शामिल हैं:

  • तानाशाही शासन
  • चरमपंथी विचारधारा वाले गुट
  • और वे शक्ति केंद्र जो अस्पष्टताओं में फलते-फूलते हैं।

और जो नुकसान में हैं, वे हैं:

  • इसराइल जैसे लोकतंत्र
  • भारत जैसे राष्ट्र जो चरमपंथ से लड़ रहे हैं
  • अमेरिका की अपनी साख और सुरक्षा
  • और आम नागरिक, जो इस खेल के मोहरे बनते हैं
  • वॉशिंगटन में इसराइली नागरिकों की हत्या केवल एक खबर नहीं—यह चेतावनी है।

अगर दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र की राजधानी में इस प्रकार की घटना हो सकती है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि चरमपंथ अब केवल सीमाओं का मसला नहीं, बल्कि नीतियों का नतीजा बन चुका है।

भारत, इसराइल और अमेरिका जैसे देशों को अब यह तय करना होगा कि वे किस प्रकार के गठबंधनों का समर्थन करते हैं। क्या वे उन सौदों को स्वीकार करेंगे जिनमें चरमपंथ को छूट मिलती है? या वे अपनी मूलभूत मान्यताओं के साथ खड़े रहेंगे?

एक नया वैश्विक तूफान आकार ले रहा है—और अब वक्त है कि लोकतंत्र इससे पहले चेत जाए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।

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