बहुत देर में पहचाना गया वहीदा रहमान को

राकेश अचल
देश की ख्यातिनाम अभिनेत्री वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देकर भारतीय फिल्म जगत ने अपने आपको कृतघ्न होने से बचा लिया । पूरे दो दशक के बाद इस प्रतिष्ठित सम्मान के लिए किसी फिल्म अभिनेत्री को चुना गया है। वहीदा रहमान के मुरीद इस खबर से खुश हैं ,लेकिन वहीदा जी को कदाचित इस उपलब्धि से शायद बहुत ज्यादा खुही न हो क्योंकि ८५ साल की उम्र में इस तरह के सम्मान,पुरस्कार जीवन में हिलोरें पैदा नहीं कर पाते।
तमिलनाडु में जन्मी वहीदा रहमान आजकल ;लव-जिहाद ‘ कपो लेकर हंगामा करने वाली पीढ़ी के लिए शायद उतनी महत्वपूर्ण न हों लेकिन ऐसी अनेक पीढ़ियां हैं जो वहीदा रहमान के अभिनय पर जान छिड़कती रहीं है। वहीदा रहमान न हिन्दू हैं और न मुसलमान वे भारीतय सिनेमा जगत की एक धरोहर है। वे नाम से भी वहीदा [अतुलनीय ] हैंऔर रहमदिल भी। वे जितना अच्छा अभिनय करती हैं उतना ही बेहतरीन भरतनाट्यम नृत्य भी। वहीदा होना यूं भी आसान बात नहीं है।
वहीदा रहमान मेरे जन्म के पहले से सिनेमा में सक्रिय थीं। मैंने उनकी अपवाद स्वरूप कुछ फिल्मों को छोड़कर शायद सभी फ़िल्में देखीं है। बात शायद १९६४ की है जब मैंने १९५७ में बनी उनकी पहली फिल्म प्यासा देखी थी । ये उम्र थी जिसमें कुछ भी समझ नहीं आता था सिवाय इसके की एक दुबली-पतली और एक अलग केश विन्यास वाली हीरोइन है जो आँखों को अच्छी लगती है। मैंने वहीदा जी को सही ढंग से पहचाना १९६४ में बनी फील गाइड से। गाइड एक क्लासिक फिल्म थी लेकिन इस फिल्म में मुझे देवानंद से ज्यादा व्हीआदा रहमान का अभिनय प्रभावी लगा । मेरे सर पर वहीदा जी का ऐसा भूत सवार हुआ की उनकी कोई भी फिल्म किसी भी सिनेमाघर में लगती थी उसे देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता था।
आज की पिज्जा-बर्गर पीढ़ी वहीदा रहमान के अभिनय के जादू की कल्पना नहीं कर सकती। जिस जमाने में वहीदा रहमान ने अपने अभिनय की यश पताका फ्राई उस समय न कैमरे बेहतीन थे और न सिनेमेटोग्राफी की तकनीक। सब कुछ आपके अभिनय और काया पर निर्भर करता था । कैमरा आपकी खूबसूरती को कम या ज्यादा नहीं कर सकता था। फिल्म प्याज़ की गुलाबो,और सोलहवां साल की लाज हो या कागज के फूल की शांति हो या एक फूल चार कांटे की सुषमा । काला बाजार की अलका हो या रूप की रानी चोरों के राजा की रूपा वो सिर्फ वहीदा थी। हर भूमिका में सौ फीसदी फिट। राखी की राधा कुमार या बीस साल बाद की राधा ,गाइड की नलिनी हो या राम-श्याम की अंजना इन सभी भूमिकाओं को वहीदा रहमान ने जो रंग और आकार दिया वो अविश्वसनीय है ।
फिल्म आदमी की मीणा या नीलकमल की नीलकमल और सीता ,मेरी भाभी की माया और प्रेम पुजारी की सुमन केवल व्हीएदा रहमान ही हो सकती थी। फिम दर्पण की माधवी और रेशमा -शेरा की रेशमा को कौन भूल सकता है ? कभी-कभी की अंजलि मल्होत्रा और त्रिशूल की शनिति को किसने नहीं देखा । इन सभी भूमिकाओं में २००६ में आयी रंग दे बसंती में अजय की मान भीतो वहीदा रहमान ही थी। वहीदा के पास रूप,रंग,अभिनय सब कुछ था जो आज की तमाम नामचिन्ह अभिनेत्रियों के पास नहीं है।मै आज भी जब १९५७ में बनी ‘प्यासा ‘ फिल्म को देखता हूँ तो समझ नहीं पाता की किसी चरित्र को वहीदा रहमान कैसे अपने में आत्मसात कर लेती हैं।
फ़िल्मी दुनिया का हर अभिनेता और अभिनेत्री दादा साहब फाल्के पुरस्कार को हासिल कर मरना चाहता है ,लेकिन सबका सपना पूरा नहीं hota। १९६९ में जब ये पुरस्कार स्थापित हुआ था तब किसी ने नहीं सोचा था की इसे भारतीय सिनेमा जगत का नोबुल पुरस्कार माना jayega। कहने को पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार महिला अभिनेत्री देविका रानी को मिला था लेकिन बाद में पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को पीछे धकेलना शुरू कर दिया । अब तक दिए गए ६७ पुरस्कारों में से केवल ६ महिला अभिनेत्रियों को [जिनमें लता जी और आशा भोंसले भी शामिल हैं ] ये पुरस्कार दिया गया। ये पुरस्कार उन अमिताभ बच्चन को भी दे दिया गया जो वहीदा रहमान के जमाने में किसी के गर्भ में रहे होंगे।।
श्वेत-श्याम फिल्म सीआईडी से जनता के दिल में जगह बनाने वाली वहीदा रहमान का सिक्का 1960, 1970 और 1980 के दशक तक जारी रहा। उन्होंने गाइड (1965) में अपनी भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। यहाँ वह अपने करियर के शिखर पर पहुँची। उन्होंने नील कमल (1968) के लिये भी ये पुरस्कार जीता। उनकी अनेक फ़िल्में फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल भी रहीं लेकिन इस असफलता से वहीदा रहमान के व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ा। सीआईडी के हिट होने के बाद वहीदा रहमान और गुरु दत्त ने साथ में कई फिल्मों में काम किया. प्यासा, कागज के फूल, चौदहवीं का चाँद, साहिब-बीवी और गुलाम शामिल है. गुरु दत्त और वहीदा रहमान की जोड़ी हिट रही और इसी के साथ दोनों के प्रेम संबंधों की खबरें भी सामने आने लगी थी।गुरु दत्त वहीदा के प्यार में इस कदर डूबे हुए थे कि वह फिल्म में उनके साथ अपने अलग सीन्स लिखवाते थे. गुरु दत्त पहले से शादीशुदा थे जब उनकी पत्नी गीता को इस बारे में पता चला था तो वह टूट गई थीं. उस वक्त गुरु ने प्रेमिका की जगह पत्नी को चुना था. वहीदा से अलग होकर वह टूट गए थे और एक वक्त ऐसा आया जब उन्होंने आत्महत्या कर ली.
मैंने बहुत पहले उनका एक इंटरव्यू देखा था ,जिसमें उन्होंने कहा था कि – उन्होंने फिल्मों में पहने जाने वाले कपड़ों से कभी समझौता नहीं किय। उन्होंने अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘सीआईडी’ में पहले ही अनुबंध में इस बात का जिक्र किया था कि अगर मुझे पोशाक पसंद नहीं आएगा तो मैं उसे नहीं पहनूंगी. ‘सीआईडी’ के निर्देशक राज खोसला ने वहीदा रहमान को सुझाव दिया था कि वह अपना नाम बदल लें, क्योंकि यह बहुत लंबा था, लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया।
वहीदा जी शतायु हों ,स्वस्थ्य रहें। वहीदा रहमान 85 वर्ष की हो चुकी हैं और आज भी उतनी ही सुंदर, उतनी ग्रेसफुल लगती हैं। इन दिनों उनकी हेयरस्टाइल में कान से ऊपर उनके बालों में जो लहर सी बनती है, वह मेरी एक मौसी मां की याद दिलाती है। हम जैसे फिल्म प्रेमी भाग्यशाली हैं कि वह हमारे बीच हैं। यकीन नहीं होता कि वह एक खूबसूरत और विस्मृत हो चुके दौर की गवाह रही हैं। उनके जीवन की कोई साध शायद अब शेष नहीं है।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com

 

 

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