अरुण उपाध्याय
सनातन धर्म में कुछ विशेष योगों, दिनों तथा तिथियों को अक्षय कहा गया है। ये ऐसी तिथियां होती हैं जिस दिन दान, तीर्थस्नान, जप, हवन आदि का फल अक्षय एवं अनंत होता है। सामान्य तौर पर समाज में अक्षय के नाम से केवल वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) एवं कार्तिक शुक्ल नवमी (अक्षय नवमी) ही प्रचलित हैं। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि शेष अक्षय तिथियों तथा योगों के बारे में लोग न जानते हैं और न ही पंचागकर्तागण इसका स्पष्ट संकेत करते हैं।
योगिनी तंत्र में भगवान कहते हैं :-
अयने विषुवे चैव ग्रहणे चंद्रसूर्ययोः।
रविसंक्रांतिदिवसे युगाद्यासु सुरेश्वरि !!
मन्वन्तरासु सर्वासु महापूजादिने तथा।
महातीर्थेषु सर्वेषु नास्ति कालस्य निर्णय:॥
अर्थात्,
हे सुरेश्वरी !! उत्तरायण तथा दक्षिणायन की संक्रांति में (कर्क एवं मकर संक्रांति) चंद्र तथा सूर्य ग्रहण में (मात्र दृश्य होने पर) द्वादश सूर्य संक्रांति पर, युगादि तिथियों (चारों) में तथा मन्वन्तरादि तिथियों (चौदहों) में महातीर्थों का सानिध्य मिलने पर पूजा के विषय में काल मुहूर्त का निर्णय न करे।
ब्रह्म पुराण के अनुसार :-
वैशाख मासस्य च या तृतीया, नवम्यसौ कार्तिकशुक्लपक्षे।
नभस्य मासस्य तमिस्रपक्षे, त्रयोदशी पंचदशी च माघे।
एताः युगाद्या: कथिता, मुनींद्रैरनन्तपुण्यास्तिथयःश्चतस्र:॥
(गौणचांद्रगणना से, अर्थात् पहले कृष्ण, फिर शुक्लपक्ष) वैशाख (शुक्ल) तृतीया, कार्तिक शुक्ला नवमी, श्रावण कृष्णा त्रयोदशी तथा माघ की पूर्णिमा, इन चारों को युगादि तिथि कहा गया है, ये अनन्त पुण्य तिथियां हैं।
कुछ के मत से पुण्य रूप सत्ययुग एवं त्रेता का प्रादुर्भाव शुक्ल पक्ष में हुआ था :- द्वे शुक्ले द्वे तथा कृष्णे, युगाद्ये परिकीर्तिते।
इसीलिए पापरूप द्वापर एवं कलियुग का प्रादुर्भाव कृष्ण पक्ष में समीचीन है एवं ब्रह्मपुराण के उक्त श्लोक में पंचदशी का भाव माघ कृष्ण अमावस्या से है।
आचार्य हलायुध एवं गोविंदानंद जैसे अन्य विद्वान कहते हैं कि :-
वैशाखे शुक्ल पक्षे तु तृतीयायां कृतं युगम्।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु त्रेताथ नवमेऽहनि॥
अथ भाद्रपदे मासि त्रयोदश्यान्तु द्वापरम्।
माघे च पौर्णमास्यां वै घोरं कलियुगं स्मृतम्।
(क्षयमास, अधिकमास तिथिक्षय, तिथिवृद्धि आदि के कारण किसी किसी समय)
वैशाख शुक्ल तृतीया को सत्ययुग, कार्तिक शुक्ल नवमी को त्रेता, भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को द्वापर तथा माघ (शुक्ल) पूर्णिमा को कलियुग की उत्पत्ति हुई है। और इसी के आधार पर सभी शुक्ला तिथियों को ही युगादि मानते हैं। गौणचांद्र तथा प्रबलचांद्र गणना के भेद से यह विरोधाभास दिखता है।
भविष्य पुराण एवं मत्स्य पुराण के मत के अनुसार :-
अश्वयुक् शुक्ल नवमी द्वादशी कार्तिकी तथा।
तृतीया चैत्रमासस्य तथा भाद्रपदस्य च॥
फाल्गुनस्याप्यमावास्या पौषस्यैकादशी तथा।
आषाढ़स्यापि दशमी तथा माघस्य सप्तमी॥
श्रावणस्याऽष्टमी कृष्णा तथाषाढ़स्य पूर्णिमा।
कार्तिकी फाल्गुनी चैत्री ज्येष्ठी पंचदशी सिता।
मन्वन्तरादयस्त्वेता दत्तसाक्षयकारिका॥
अर्थात्,
आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक शुक्ला द्वादशी, चैत्र तथा भाद्रपद शुक्ला तृतीया, फाल्गुन अमावस्या, पौष शुक्ला एकादशी, आषाढ़ शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी, श्रावण कृष्णा अष्टमी, आषाढ़ की पूर्णिमा, कार्तिक-फाल्गुन-चैत्र-ज्येष्ठ पूर्णिमा, इन तिथियों को मन्वन्तरादि कहते हैं तथा इनमें किया गया दानादि अक्षय होता है।
युगादि तिथियों की भांति मन्वन्तरादि तिथियों के विषय में भी विद्वानों में मतभेद मिलता है। कामधेनु ग्रंथकार इसमें चैत्र की तृतीया के स्थान पर तृतीया मानते हैं :- तृतीया चैव माघस्य।
कल्पतरु ग्रंथकार इसका खंडन करते हुए पुनः श्रीपति रत्नमाला के पाठ का उद्धरण देते हुए चैत्र शुक्ला तृतीया के मत का समर्थन करते हैं। श्रीदत्त स्मार्त आदि विद्वान भी कल्पतरु के मत से सहमत हैं।
इस प्रकार से सनातन धर्म में कई अक्षय तिथियां एवं पारिस्थितिक योग उपलब्ध हैं जिनका ज्ञान होना समाज के लिए आवश्यक है।
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