त्रिदीब रमण।
’बात इतनी सी थी मगर बता नहीं पाए
गैरों के आगे तुझे गले लगा नहीं पाए
शहर में इन दिनों काफिरों की आवाज़ाही है बहुत
क्यों तुम्हें खुदा अपना बना नहीं पाए’
सवाल यह लाख टके का है कि क्या केजरीवाल की दिल्ली उनकी मुट्ठियों से रेत के मानिंद सरक रही है, आहिस्ता-आहिस्ता, धीरे-धीरे। भगवा सियासी पेचोंखम की चमक क्या दिल्ली में आप सियासत की आंखों को चौंधिया रही है? पिछले दिनों केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली के लिए एक परिसीमन आयोग का गठन कर दिया है। दरअसल दिल्ली नगर निगम के वार्डों के परिसीमन के लिए केंद्र सरकार ने एक 3 सदस्यीय कमेटी गठित की है, इस कमेटी को चार महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट देनी है, इसके बाद ही निगम के चुनाव संभावित हैं। पर इसमें दिक्कत यह है कि अभी तक वार्डों के परिसीमन का फार्मूला ही तय नहीं हुआ है। सूत्रों की मानें तो केंद्रनीत भाजपा दिल्ली की आप सरकार को जोर का झटका धीरे से देना चाहती है। इसी कड़ी में पिछले वर्ष ’गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली एक्ट’ पास हुआ था, इस एक्ट के तहत दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकारों का दायरा काफी बढ़ा दिया गया था, सूत्रों की मानें तो अपने इस महत्वाकांक्षी कदम से केंद्र सरकार दिल्ली में 1993 से पूर्व वाली स्थिति लाना चाहती है। याद कीजिए तब दिल्ली के पास न अपनी विधानसभा थी, न ही सरकार, ना ही मंत्री या मुख्यमंत्री यानी तब दिल्ली को महज़ एक केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा हासिल था। अब एक ऐसी दिल्ली बनाने की तैयारी है, जहां दिल्ली के पास अपना मेयर तो होगा, पर उप राज्यपाल के पास असीमित अधिकार होंगे, जो केंद्र सरकार की नुमाइंदगी करेंगे। 1956 में जब दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया था, तब दिल्ली विधानसभा और मंत्रिमंडल के प्रावधान को खत्म कर दिया गया था। सूत्रों की मानें तो परिसीमन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद विभिन्न वार्डों में चुने हुए सदस्यों के अलावा मनोनीत सदस्यों की संख्या में भी बढ़ोतरी की जा सकती है। अगर भाजपा अपनी इस परिकल्पना को मूर्त रूप देने में कामयाब हो जाती है तो फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग सकता है।
पीएम की अदा पर फिदा हुए सिंगापुर के मंत्री
8 जुलाई को विज्ञान भवन में ‘अरुण जेटली मेमोरियल लेक्चर’ आहूत था, जिसमें बतौर मुख्य वक्ता सिंगापुर के सीनियर थरमन शनमुगारत्नम को अपना लेक्चर डिलीवर करना था। जेटली का पूरा परिवार मंच के नीचे पहली पंक्ति में बैठा था और उसी पंक्ति में सिंगापुर के इस सीनियर मंत्री को भी बिठाया गया था। पीएम तयशुदा वक्त पर सभागार में पधारे, आम तौर पर वे सीधे स्टेज पर ही अवतरित होते हैं, पर उस रोज मानक परंपरा को तोड़ते हुए पीएम सबसे पहले जेटली परिवार से मिले, फिर स्टेज पर गए। स्टेज पर पहुंचने के बाद उन्होंने जब नीचे निगाह डाली तो पाया कि सिंगापुर के यह मंत्री दर्शक दीर्घा में बैठे हुए हैं। उस समय स्टेज पर पीएम की अगवानी के लिए महज़ देश की फाइनेंस मिनिस्टर निर्मला सीतारमण उपस्थित थीं। पीएम ने उनसे उसी वक्त शनमुगारत्नम को स्टेज पर लाने को कहा। फौरन अधिकारी हरकत में आए और सिंगापुर के मंत्री को स्टेज पर लाया गया। पर इसके बाद पीएम के हाव-भाव बता रहे थे कि वे प्रोटोकॉल की इस व्यवस्था से खुश नहीं हैं। जो गणमान्य लोग इस लेक्चर को सुनने के लिए खास तौर पर पधारे थे, उनमें अनुराग ठाकुर, रवि शंकर प्रसाद, पी के मिसरा, राजीव शुक्ला व रिवर्ज बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर की उपस्थिति देखी जा सकती थी, ज्यादातर केंद्रीय मंत्रियों की अनुपस्थिति भी हैरान करने वाली थी, कई वैसे भगवा चेहरे भी नदारद थे जिनकी प्रतिभा को जेटली ने पहचाना था और उन्हें एक मुकम्मल जगह तक पहुंचने में मदद की थी।
अच्छे लीडर भी हैं स्पीकर
लोकसभा स्पीकर ओम बिरला अक्सर अतिरेक उत्साह की लहरों पर सवार रहते हैं, पिछले दिनों जब बतौर स्पीकर उनके तीन साल पूरे हुए तो इस मौके को खास बनाने के लिए उन्होंने दनादन थोकभाव में मीडिया वाले को कई इंटरव्यू दिए। एक सप्ताह तक चले उनके इस इंटरव्यू श्रृंखला से न सिर्फ पार्टी का शीर्ष नेतृत्व बावास्ता हुआ बल्कि आम जनता में भी यह संदेश गया कि वे कितने ’प्रो-एक्टिव’ स्पीकर हैं, उनकी इस चाह को एक मुकम्मल आसमां मुहैया कराने के लिए लोकसभा सचिवालय ने पार्लियामेंट एनेक्स में एक नहीं बल्कि तीन स्टूडियो की व्यवस्था की हुई थी, जहां भारत के तिरंगे से इसका बैकड्रॉप तैयार किया गया था। स्पीकर महोदय ने भी बगैर मिनट गंवाए बारी-बारी से हर स्टूडियो में इंटरव्यू दिए, इस बात का भी खास ख्याल रखा कि हर इंटरव्यू के दौरान कम से कम वे अपना जैकेट तो बदल लें। उनकी इस मासूम अदा का हर जर्नलिस्ट दीवाना हो गया जब इंटरव्यू समाप्त करने के बाद वे तिरंगे की बैकग्राउंड में इंटरव्यूकर्ता जर्नलिस्ट से अपने साथ एक अदद फोटो खिंचाने का आग्रह करते। पर सूत्रों की मानें तो दरअसल ओम बिरला की निगाहें राजस्थान के अगले सीएम की कुर्सी पर टिकी है, उन्हें उम्मीद है कि उनका नंबर जरूर लगेगा। वैसे भी वे अपने संसदीय क्षेत्र कोटा में खासे लोकप्रिय हैं, वे नियम से हर शनिवार व रविवार अपने संसदीय क्षेत्र में ही होते हैं और क्षेत्र की जनता से घुलते-मिलते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ सकती है
बेहद विश्वस्त सूत्रों का दावा है कि संसद के इस मानसून सत्र जो 18 जुलाई से आहूत है, केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के जजों की सेवा निवृत्ति आयु बढ़ाने का प्रस्ताव ला सकती है। अभी तक की परंपराओं के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के जज अपने 65वें जन्मदिन पर रिटायर होते हैं, सरकार इनकी रिटायरमेंट की उम्र दो साल आगे बढ़ाने पर विचार कर रही है यानी अब जज महोदय 65 के बजाए 67 की उम्र में रिटायर होंगे। सनद रहे कि देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने अप्रैल माह में आयोजित एक वेबिनार में रिटायरमेंट की आयु बढ़ाने की पैरवी की थी। चीफ जस्टिस रमन्ना अगले माह 16 अगस्त को रिटायर होने वाले हैं। कई राज्यों के लॉ-कमीशन ने भी जजों की रिटायरमेंट की उम्र 65 से बढ़ा कर 67 करने की वकालत की है। अभी तक तो यही तय है कि जस्टिस रमन्ना की जगह जस्टिस यूयू ललित ले सकते हैं, जिन्हें बस 8 नवंबर तक अपने पद पर बने रहना है। उनके बाद जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की बारी आएगी जो 2 वर्षों के लिए चीफ जस्टिस रहेंगे। जस्टिस ललित का वो हालिया बयान काफी चर्चित हुआ जब उन्होंने कोर्ट के वर्किंग ऑवर को बढ़ाने की पैरवी करते हुए कहा था कि ’अगर हमारे बच्चे सुबह 7 बजे स्कूल जा सकते हैं तो हम जज और वकील 9 बजे कोर्ट क्यों नहीं जा सकते?’ अगर संसद में सुप्रीम कोर्ट के जजों की रिटायरमेंट उम्र दो वर्ष आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पारित हो जाता है तो जस्टिस ललित दो और वर्षों के लिए देष के चीफ जस्टिस बने रह सकते हैं यानी वैसी सूरत में जस्टिस चंद्रचूड़ को अपनी बारी के लिए दो वर्ष और इंतजार करना पड़ सकता है। ऐसी सुगबुगाहटों ने देश के हाई कोर्ट के जजों के मन में भी आशा की नई ज्योति का संचार कर दिया है जो महज़ 62 वर्ष की उम्र में ही रिटायर हो जाते हैं।
फोटो पत्रकारों पर गाज
हर तस्वीर कोई न कोई कहानी बयां करती है और यह अपने पहलू में उस दौर का इतिहास भी छुपाए रखती है। पर लगता है भारत में फोटो जर्नलिज्म की समृद्ध परंपरा को किसी की बुरी नज़र लग गई है, अब अखबारों और एजेंसियों में फोटो जर्नलिस्ट की नौकरियों का टोटा पड़ने लगा है, इनकी डिमांड कम हो गई है। अगर राष्ट्रपति भवन की ही बात करें तो पिछले 5 सालों में यहां विजुअल मीडिया की एंट्री को एक तरह से अघोषित ‘ना’ ही है। एक-दो अपवादों को छोड़ कर जैसे जब कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष अपने भारत दौरे के दरम्यान राष्ट्रपति भवन पधारते हैं और जब उन्हें ’गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जाता है या हैदराबाद हाउस में इनके सम्मान में कोई लंच या डिनर रखा जाता है तो वहां विजुअल मीडिया की एंट्री हो जाती है। वैसे भी पिछले कुछ सालों में व्यक्तिगत फोटोग्राफर रखने की परंपरा ने ज्यादा जोर मारा है। देष के राश्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री उनके निजी फोटोग्राफर हैं, भाजपाध्यक्ष तक ने अपना निजी फोटोग्राफर रखा हुआ है। यहां तक कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के भी अपने निजी फोटोग्राफर हैं। सभी मंत्रियों के अपने फोटोग्राफर हैं। सो अब ’केंडीड’ या ’ऑफ बीट’ फोटो कहां नज़र आती हैं। कान में फुसफुसाते हुये या हंस कर बतकहियां करने वाले फोटो के दौर भी नहीं रहे, उदयपुर में तीन दिनों तक कांग्रेस की चिंतन बैठक चली, पर फोटोग्राफरों की एंट्री वहां भी बैन रही। सो, अब महज़ वही फोटो सामने आते हैं जैसा राजनेता खुद को दिखाना चाहते हैं या दिखने का स्वांग रचते हैं।
पवार का चाणक्य कैसे चूक गया?
इस बार महाराष्ट्र की महाअघाड़ी सरकार को बचाने में, उसे उबारने में कैसे सियासत के चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार चूक गए? उनसे गलती आखिर कहां हुई? उनकी पार्टी के पास ही महाअघाड़ी सरकार में गृह मंत्रालय था, खुफिया सूचनाएं थीं, पर उन्हें भगवा एकनाथ इरादों की समय पर सूंघ नहीं लग पाई? विश्वस्त सूत्रों की मानें तो महाराष्ट्र में भगवा खेला से कुछ रोज पूर्व दिल्ली में पवार पीएम से आकर मिले थे, बाद में भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं से महाराष्ट्र में भाजपा के साथ नई सरकार की गठन को लेकर उनकी गंभीर मंत्रणा हुई। पर इस पूरे मामले में बस एक पेंच फंस गया, वह यह कि पवार इस बात पर अड़ गए थे कि नई गठबंधन सरकार की सीएम उनकी पुत्री सुप्रिया सुले ही होंगी, वहीं जबकि भाजपा पवार पुत्री को डिप्टी सीएम बनाने को राजी थी। पवार नहीं माने तो भाजपा को लगा कि फिर एकनाथ शिंदे क्या बुरे हैं, कम से कम उनके कंट्रोल में तो रहेंगे। और बाजी यहीं पलट गई।
…और अंत में
आखिरकार झारखंड मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो और वहां के सीएम हेमंत सोरेन ने एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के समर्थन का ऐलान कर ही दिया। दरअसल, जब मुर्मू झारखंड की राज्यपाल थीं और रघुबर दास वहां के सीएम, तो 2016 में भाजपा की रघुबर दास सरकार आदिवासी हितों की अनदेखी करती दो अहम विधेयक लेकर आई थी, एक ‘छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम’ और दूसरा ‘संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम’। जब यह विधेयक दस्तखत के लिए वहां की तत्कालीन गवर्नर द्रौपदी मुर्मू के पास आए तो मुर्मू ने यह कहते हुए इन दोनों विधेयकों पर साइन करने से इंकार कर दिया, और आदिवासी हितों का ध्यान रखने के लिए पुनर्विचार हेतु इन विधेयकों को सरकार के पास वापिस भेज दिया। कहते हैं इस बात का फायदा चुनावों में झारखंड मुक्ति मोर्चा को मिला और आदिवासियों के एकमुश्त वोट सोरेन की पार्टी को मिले। सो, मुर्मू की उम्मीदवारी का समर्थन सोरेन की मजबूरी बन गई थी।
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