क्या है जातीय जनगणना? जानिए बिहार सरकार व विरोधियों का तर्क और इसका पूरा इतिहास

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 2अगस्त। पटना हाईकोर्ट ने मंगलवार को उन याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसमें जातीय सर्वेक्षण पर रोक लगाने की मांग की गई थी. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की इस पहल को पूरी तरह से वैध और कानूनी रूप से सक्षम यानी Competent बताया. हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद लगभग तीन महीने से रुके सर्वे के एक बार फिर से शुरू होने का रास्ता खुल गया. हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस पार्थ सार्थी की खंडपीठ ने राज्य सरकार के पक्ष में यह फैसला सुनाया. इसी के साथ हाईकोर्ट की तरफ से ही 4 मई को जातीय सर्वे पर लगाई गई अंतरिम रोक भी हट गई. चलिए बिहार में जातीय सर्वेक्षण पर अब तक क्या-कुछ हुआ और दोनों पक्षों के तर्क क्या हैं? जानते हैं…

जातीय सर्वेक्षण के लिए राज्य सरकार का तर्क
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार का कहना है कि सांख्यिकी संग्रह अधिनियम, 2008 उन्हें सामाजिक न्याय के हित में इस तरह का सर्वे करने का अधिकार देता है. हाईकोर्ट ने विधानसभा की बहस और जाति के आधार पर आरक्षण से संबंधित इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया. हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार की दलीलों में भी इसे तथ्य के तौर पर पाया गया.

इस जातीय सर्वेक्षण का लक्ष्य और उद्देश्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की पहचान करना है. ऐसा करने से उनके उत्थान के लिए काम हो सकेगा और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित किए जा सकेंगे. इससे पिछड़े वर्गों को रोजगार उपलब्ध करवाने के साथ ही समाजिक तौर पर आगे लाने व शैक्षणिक संस्थानों में उनका प्रवेश सनुश्चित करना भी संभव होगा.

कोर्ट ने अपने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे प्रयास सार्वजनिक हित के लिए जरूरी हैं और सरकार को करने ही चाहिए. इस तरह के प्रयास निजता के अधिकार से ऊपर हैं, इसलिए ऐसे सर्वे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

मौलिक अधिकार का उल्लंघन है सर्वे!
जातीय सर्वेक्षण का विरोध करने वालों का मानना है कि इस तरह की जनगणना किसी व्यक्ति के निजता के मौलिक अधिकार के उल्लंघन जैसा है. सरकार के जातीय सर्वे के फैसले के विरोध में 12 रिट याचिकाएं दाखिल की गई थीं. इन रिट याचिकाओं में राज्य सरकार के फैसले को चुनौती दी गई और कहा गया कि सर्वेक्षण की आड़ में सरकार जनगणना करवा रही है. इसके साथ ही तर्क दिया गया कि राज्य सरकार के पास जनगणना करने की कोई कानूनी क्षमता नहीं है. जनगणना अधिनियम के तहत यह देश की संसद का विशेषाधिकार है. इसके अलावा याचिकाकर्ताओं ने राज्य की आकस्मिक निधि में से 500 करोड़ रुपये की अनुमानित खर्च पर भी सवाल उठाया.

जातीय जनगणना की मांग
बिहार में जातीय जनगणना की मांग पिछले कई वर्षों से की जा रही है. इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया गया, लेकिन कभी इस योजना के धरातल पर उतरने की स्थिति नहीं बनीं. साल 2022 में जातीय सर्वे की घोषणा तो हुई, लेकिन इस पर काम आगे नहीं बढ़ सका. आखिरकार जब पिछले वर्ष मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली JDU ने NDA का साथ छोड़कर एक बार फिर कांग्रेस व RJD के साथ महागठबंधन में शामिल होने का निर्णय किया तो इस पर सरकार आगे बढ़ी.

कब शुरू हुआ जातीय सर्वे और कब रोक लगी?
बिहार में सरकार ने 6 जून 2022 को जातीय सर्वे की घोषणा की. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार NDA से अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा बन गए. इस बीच 2022 खत्म हो गया और 7 जनवरी 2023 से राज्य में सर्वेक्षण का पहला चरण शुरू हुआ. इसके बाद दूसरा चरण 15 अप्रैल से शुरू हुआ, जिसमें लोगों की जाति के साथ ही सामाजिक, आर्थिक स्थितियों के बारे में भी डेटा कलेक्ट किया जाने लगा. इस बीच यूथ फॉर इक्वेलिटी संगठन ने याचिका लगाई, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट को आदेश दिया कि इस पर जल्द से जल्द विचार करके याचिका का निपटारा करें. इसके बाद पटना हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस चंद्रन और जस्टिस मधुरेश प्रसाद की बेंच ने 4 मई को जातीय सर्वेक्षण पर अंतरिम रोक लगा दी. इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी गुरुवार 18 मई को पटना हाईकोर्ट से जातीय सर्वेक्षण पर लगी रोक को हटाने से मना कर दिया था.

देश में कब हुई जातीय जनगणना?
देश में जातीय जनगणना से जुड़ा डाटा आजादी से पहले सन 1931 का ही है. साल 1941 में भी जातीय जनगणना हुई, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए. इसके बाद से ही जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की संख्या की गिनती होती है. हालांकि, मंडल आयोग का आकलन था कि देश में OBC की जनसंख्या 52 फीसद है और कई अन्य लोगों ने इसके लिए अलग-अलग आंकड़े दिए हैं. देश के आजाद होने के बाद हर 10 साल में जनगणना होती है. 1951 से अब तक हर जनगणना में जातीय जनगणना की मांग उठती रही है.

2011 में यूपीए सरकार ने समाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना कराने का फैसला लिया. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ग्रामीण इलाकों में और आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने शहरी इलाकों में इस तरह का सर्वे किया भी. जातीय आंकड़ों के बिना SECC डाटा को दोनों मंत्रालयों ने साले 2016 में पब्लिश भी किया. यह डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिया गया, ताकि एक एक्सपर्ट ग्रुप जातीय आंकड़ों को अलग-अलग कर सके. लेकिन अभी तक इसकी रिपोर्ट पब्लिश नहीं की गई.

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