‘शाप’ और ‘श्राप’ में सही शब्द कौन-सा है? क्या राजस्थान पत्रिका ने ग़लत लिखा?

राजीव शर्मा 

‘शाप’ और ‘श्राप’ दो ऐसे शब्द हैं जो प्राय: भ्रमित कर देते हैं। आमतौर पर लोग ‘श्राप’ लिखते हैं। बातचीत में भी ‘श्राप’ शब्द का इस्तेमाल होता है। आज (21.12.2021) राजस्थान पत्रिका (जयपुर संस्करण) में छपी एक ख़बर ने मेरा ध्यान इस शब्द की ओर आकर्षित किया। अख़बार के पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी ख़बर का शीर्षक है- ऐश्वर्या से ईडी की पूछताछ, जया बच्चन ने दिया भाजपा को ‘श्राप’।

मेरे विचार में, यहां ‘श्राप’ की जगह ‘शाप’ होना चाहिए। स्कूली पढ़ाई के दौरान शिक्षकों ने यही बताया था कि ‘शाप’ सही शब्द है।

लेकिन इतने बड़े अख़बार में ‘श्राप’ छपा देखा तो मैंने सोचा कि इस शब्द की जांच-पड़ताल करनी चाहिए। इसके लिए हिंदी के विभिन्न शब्दकोशों के पन्ने पलटे। प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश में ‘श्राप’ शब्द ढूंढ़ते हुए पृष्ठ सं. 2381 पर पहुंच गया। यहां लिखा था- ‘शाप’ को ‘श्राप’ कहना ग़लत है, शुद्ध शब्द ‘शाप’ का ही प्रयोग करना चाहिए।

भार्गव के हिंदी-अंग्रेज़ी शब्दकोश में पृष्ठ सं. 1023 पर ‘शाप’ लिखा है, ‘श्राप’ नहीं। इसके लिए अंग्रेज़ी में ‘curse’ शब्द दिया गया है।

इसी तरह भार्गव के आदर्श हिंदी शब्दकोश में पृष्ठ सं. 741 पर ‘शाप’ का उल्लेख है। इसका अर्थ बताया गया है- ‘किसी का अनिष्ट मनाते हुए बुरी कामना व्यक्त करना।’

वर्धा हिंदी शब्दकोश में पृष्ठ सं. 2749 पर ‘शाप’ शब्द मिला, जिसका अर्थ ‘अहित सूचक शब्द या कथन’ बताया गया है।

फ़ादर कामिल बुल्के के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश में ‘curse’ का अर्थ ‘शाप’ बताया गया है, ‘श्राप’ नहीं।

‘व्यावहारिक हिंदी: शुद्ध प्रयोग’ नामक पुस्तक में पृष्ठ सं. 108 पर ‘शाप’ और ‘श्राप’ का अंतर कुछ इस तरह बताया गया है- ‘शाप, अभिशाप, शापित, शापान्त आदि शब्द ‘शाप’ से बनते हैं। ‘श्राप’ शब्द बनता ही नहीं, वह अशुद्ध है।’

कलानाथ शास्त्रीजी ने ‘मानक हिंदी का स्वरूप’ पुस्तक (पृष्ठ सं. 59) में क्या खूब लिखा है- ‘संस्कृत में शाप दिया जाता है, श्राप नहीं! पर हिंदी में श्राप ऐसा चला है कि इस शब्द को अशुद्ध कहने की हिम्मत नहीं होती।’

अजीत वाडनेरकर (Ajit Wadnerkar)-

‘श्राप’ वालों को शाप न दें…

▪️सुबह से हिन्दी प्रेमियों की अनेक इबारतें पढ़ चुका हूँ। ‘शाप’ को ‘श्राप’ लिखे जाने से व्यथित हैं। उनके दुख की मात्रा उस क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी ‘पदार्थ’ के भोगे हुए यथार्थ से भी ज्यादा है जिसकी वजह से शाप दिया गया। प्रायः सभी इबारतों में श्राप लिखने के लिए उलाहना दिया गया है। वह भी तब जब, मालवी, ब्रज, अवधी जैसी लोकभाषाओं समेत हिन्दी, मराठी में श्राप, सराप, सरापना डटे हैं। मराठी में तो शाप, शापित, शापग्रस्त आदि के साथ साथ श्राप, श्रापगुण, श्रापग्रस्त, श्रापणें, श्रापित जैसे रूप भी प्रचलित हैं।

रूपभेद भाषा को समृद्ध करते हैं
▪️ग़ौर करें, संस्कृत में भी एक ही शब्द के एकाधिक रूप प्रचलित हैं। जैसे पिछले दिनों ही ओषधी- ओषधि- औषधि- औषधी के बारे में विस्तार से लिखा था। यह भाषा और समाज का सहज स्वभाव है। ये सभी तत्सम रूप है। इनसे ‘ओखद’ जैसा लोकरूप बन जाता हैं। हालाँकि वह मामला अलग है। लोकमानस में सदियों से अगर ‘सराप’ रूप प्रयुक्त हो रहा है तो पुराने दौर के संस्कारी उच्चार में ‘श्राप’ भी निश्चित ही रहा होगा। परिनिष्ठित भाषा का आग्रह होने से ऐसा होता है। रूपभेद से भाषा समृद्ध होती है। बस, अर्थ का अनर्थ न हो। शाप के श्राप रूप का अन्य कोई आशय तो है नहीं।

कश्मीरी में अहिसर यानी शाप
▪️शाप के अनेक रूप प्रचलित हैं जैसे शाप, स्रापु, साप, सिराप, शापु, सिरापु वग़ैरह। सिन्धी में ‘सिरापु’ है तो पंजाबी, अवधी, मालवी, बुंदेली में ‘सराप’ है। राजस्थानी में ‘सरापणों’ यानी शाप देना भी है और इसका ‘स्रापणो’ जैसा रूपभेद भी मौजूद है। ग्रियर्सन के कोश मे कश्मीरी का दिलचस्प उदाहरण मिलता है। कश्मीरी में ‘अहि-सर’ का अर्थ शाप है। दरअसल यह ‘अभिशाप’ है। स्पष्ट तौर पर ‘अहि’, संस्कृत के ‘अभि’ उपसर्ग का रूपान्तर है और ‘सर’ उसी ‘स्राप’ का संक्षेप हो गया है जिसका ऊपर उल्लेख है। ये भाषा में ‘श्राप’ की उपस्थिति साबित करते हैं इसीलिए लोकमानस में हैं।

तेलुगू, मलयालम में..
▪️इसी तरह शाप की उपस्थिति द्रविड़ भाषाओं में भी नज़र आती है। मलयालम में यह ‘साबम’ है तो तेलुगू में ‘सापमु’। आंचलिक हिन्दी में ‘स्रापित’ जैसे प्रयोग भी नज़र आते हैं और ‘सरापना’ भी। एस.डब्ल्यू फ़ैलन के हिन्दुस्तानी कोश में سراپ ‘सराप’ दर्ज है और इसे शाप से ही विकसित बताया गया है। प्लाट्स प्राकृत के ‘स्रापु’ का उल्लेख करते हैं और स्रापु से श्राप का विकास बताते हैं। मगर यह विश्वसनीय नहीं है। प्राकृत की प्रकृति में ‘स्र’ जैसे संयुक्त पद नहीं होते। इसके बावजूद शाप के श्राप रूप की उपस्थिति प्राचीनकाल से लोकस्वीकृत है।

मिसालें अनेक हैं…
▪️अंग्रेजी के salt के लिए हमारे पास संस्कृत में ‘लवण’ है और लोकभाषाओं में इससे बने लमक, नमक से लेकर लूण, लोण, नून, नोन तक मौजूद है। हमने लवण के वज़न को देखते हुए नमक पर कभी आपत्ति नहीं जताई। ऐसी सैकड़ों मिसालें शब्दों का सफ़र में मिलेंगी। भाषा और पानी का स्वाद, स्थान परिवर्तन के साथ ही बदलता है। सर्प से सप्प फिर साँप हो गया। ये अनुनासिकता कहाँ से आ गई और रेफ़ का लोप किस सिद्धान्त के तहत हो गया! “परहित सरिस धरम नहीं” में जो सरिस है वह प्राकृत से आ रहा है और उसका समरूप सदृश है। सरिस और साँप का विरोध होना चाहिए। मज़े की बात यह कि ये सब बदलाव जिस समूह-समाज में हो रहे थे तब न सिद्धान्त थे, न नियम, न व्याकरण। बात स्वरतन्त्र की है।

शब्द भी फूलते हैं
▪️स्थान परिवर्तन के साथ भाषा में बदलाव इसलिए होता है क्योंकि स्थानीय जनसमूह में ध्वनियों के उच्चार की अपनी विशेषताएँ व सीमाएँ होती हैं। मुखसुख में अनेक परिवर्तन होते हैं अनुनासिकता आती है, शब्दों के बीच में नए व्यंजन आते हैं। यह भाषाई समूह की वृत्तियो के हिसाब से होता है। वानर का बन्दर हो गया। ये ‘द’ कहाँ से आया ? कई लोग शव के पर्याय लाश को लहास बोलते हैं। ये ‘ह’ कहाँ से आया! समुद्र के समन्दर में ‘न’ कहाँ से आया!! अनेक उदाहरण मिलेंगे। तो श्राप के ‘श’ में घुसा हुआ ‘र’ भी वहीं से आ रहा है जहाँ से समन्दर में घुसा ‘न’ आ रहा है।

शाप भी चले और श्राप भी चले।
▪️शब्दों के बहुरूप या रूपभेद के चौराहे पर हमेशा याद रखना चाहिए कि अगर अर्थ का अनर्थ हो रहा हो तब उस चलन का विरोध होना चाहिए। हालाँकि अनेक मामलों में यह भी सम्भव नहीं क्योंकि लोक का स्वभाव सब स्वीकारता जाता है। मिसाल के तौर पर गजानन का गजानंद रूप। दोनों का अर्थ अलग है। एक में गज आनन यानी गणेश है तो दूसरे में गज आनंद यानी गज का आनंद है। मगर गजानंद रूढ़ है और चल रहा है। चलना भी चाहिए क्योंकि गणेशजी ही नज़र आते हैं।
▪️अलबत्ता सौहार्द्र असावधान प्रयोग है। इसमें आर्द्रता यानी नमी नहीं, हार्दिकता यानी दिल की बात है। ‘हार्द’ यानी हृदय का। इसमें सु उपसर्ग लगने से सौहार्द बनेगा। तो श्राप लिखने वालों को शाप न दें…. श्राप में भी बद्दुआ ही है, आशीर्वाद नहीं।

शाप और श्राप पर कुछ और बातें

दो बरस पहले इस विषय पर लिखी पोस्ट पर अनेक प्रतिक्रियाएं मिली थीं। कुछ मित्रों की महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाओं का जवाब यथास्थान दिया गया, मगर लगा कि इसे अलग से दिया जाना बेहतर होगा।

एस.के. मिश्रा (S.K. Misra) साहब लिखते हैं कि आधी जनता शाप और श्राप के द्वन्द से अपरिचित है अब इसका निवारण भी होना चाहिए !!

▪हमारा कहना है कि एक ही शब्द के अनेक रूपभेद होने की स्थिति में आमतौर कोशों में सर्वाधिक प्रचलित प्रविष्टियों का उल्लेख करते हुए सन्दर्भ देकर पाठक को मानक शब्द तक पहुँचा दिया जाता है। इस तरह शब्दकोशों में शाप और श्राप दोनों का उल्लेख है।

▪श्राप प्रविष्टि के आगे – ‘देखें शाप’ का लिखा मिलता है। मानक शाप है, प्रचलित दोनों हैं। भ्रष्ट, गलत, अनर्थकारी जैसी कोई बात नहीं होती। भाषा का मक़सद अभिव्यक्ति है। समाज में प्रचलित रूपभेद का ही कोई व्यक्ति इस्तेमाल करता है, अपने मन से नहीं गढ़ रहा होता।

▪मैने विस्तार से अलग अलग भाषाओं में सराप, स्राप, सर जैसे रूपभेदों पर बात रखी है जिससे स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल से ही शाप के समानांतर लोक में श्राप रूप रहा होगा अथवा सराप के संस्कृतीकरण का प्रयास करते हुए स्राप, श्राप चलन में आए होंगे। पर ये बातें सदियों पुरानी हैं। अवधी में सराप प्रचलित है और हिन्दी में श्राप भी प्रचलित है। मगर हिन्दी कोश सराप और सरापना भी दर्ज करते हैं।

▪मानक चाहे शाप है, मगर शब्दकोश गवाही देते हैं कि श्राप चलन में है और इसीलिए आज भी इतने सारे लोग इसे इस्तेमाल कर रहे हैं। तभी तमाम पोस्ट लिखी गईं और यहाँ भी लिखने का यही प्रयोजन है।

▪प्रस्तुत सन्दर्भ में तो बात रूपभेद की है। उस समस्या का क्या करेंगे जो पाण्डे और पाँड़े में फँसी है। टिप्पणी और टिप्पड़ी में घुसी हुई है। शिक्षा-संचार जैसे व्यवसायों से जुड़े लोग श, स, ज्ञ, क्ष जैसे व्यजनों का दोषपूर्ण उच्चार न सिर्फ़ कर रहे हैं, बल्कि लिख भी रहे हैं।

▪शाप का अन्य रूप श्राप है। मगर इच्छा को इक्षा लिखा जा रहा है। प्रसाद को प्रशाद लिखना गलत है। क्योंकि प्रशाद रूप को कोश भी दर्ज नहीं करते। ऐसे अनेक शब्द हैं जो न शब्दकोशों में दर्ज हैं, न पूरे हिन्दी समाज में प्रचलित हैं। इन्हें दोषपूर्ण माना जाना चाहिए।

मित्र रमाकान्त नीलकंठ ने भी दिलचस्प और महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। वे लिखते हैं- “आपके अनुसार यदि चला जाय तो हिन्दी भाषा की प्राथमिक शिक्षा खटाई में पड़ जाय।सही ग़लत को अलगाने का कोई कोई तय मान या मानक ही न बचे।प्रश्नपत्र बनाना और छात्र का उत्तरपत्र लिखना और परीक्षक का जांचना सब झमेले में फंस जाय।“

▪हमारा कहना है कि सारी गड़बड़ी तो उसी स्तर से हो रही है। हमारे यहाँ भाषा शिक्षक कहाँ तैयार किए जा रहे हैं !!

▪परीक्षाओं के लिए प्रश्न तैयार करने की भी योग्यता कहाँ है !! घूम-फिर कर वही सवाल-जवाब। नकल कर कर के तो प्रश्नपत्र बनाए जाते हैं। आप लिखे, खुदा बाँचे। शिक्षा पर सबसे कम खर्च किया जाता है। उसमें भी भाषा की बात करना ही फिज़ूल है।

▪भाषा का अर्थ व्याकरण नहीं है। भाषा का व्यावहारिक पक्ष महत्वपूर्ण है। इस किस्म के प्रश्न पूछना ही मूर्खता की बात है कि शाप सही है श्राप।

▪प्रश्न अगर बने तो उसमें एक विकल्प यह भी ज़रूर होना चाहिए कि दोनों चलन में हैं।

▪अव्वल तो मेरा कोई मानक नहीं है, तो भी आपकी प्रतिक्रिया का आरम्भ ही जिस वाक्य से हुआ है कि “सही ग़लत को अलगाने का कोई कोई तय मान या मानक ही न बचे”, मुझे बताएँ कि जब कोशकारों ने ओषधी- ओषधि- औषधि- औषधी सब को सही बताया है तब आपका प्राथमिक प्रश्नकर्ता इसमें से किसे सही बताएगा और किस मानक से ?

▪प्राथमिक शिक्षा नहीं, हमारी तमाम प्राथमिकताएँ ही सिरे से गड़बड़ाई हुई हैं।

साभार- bhadas4media.com

 

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