पिछले एक सप्ताह में दो घटनाओं ने मेरा ध्यान खींचा या यूं कहें कि कुछ सोचने को विवश कर दिया। पहली घटना में एक मेट्रो शहर में रहने वाले ग्यारवीं कक्षा के एक छात्र ने बिल्डिंग की बारहवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। कारण कोरोना काल में वे सोशली अनएवलेबल हैं पर गैजेट्स के प्रति अतयधिक मोह और निरंतर बढ़ती मांगों को माता-पिता द्वारा स्थगित किए जाने को उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा जाना और बजाए समझदारी या धैर्य के बारहवीं मंजिल से छलांग लगा देना ज्यादा उचित समझा। दूसरी घटना थी जिसमें एक बारहवी कक्षा की छात्रा से बात करना, जिसके शिक्षा के प्रति सपने बड़े-बड़े हैं, अपने सपनों को पाने के लिए उसमें जज्बा है, ऊर्जा है और प्रतियोगी भावना का सामना करना उसको बहुत चैलेंजिंग भी लगता है। मैं सोच रही थी कि आखिर इनमें से किसे मैं देश की युवा पीढ़ी का चेहरा मानूं दोनों ही सत्य है और दोनों ही देश की युवा पीढ़ी की बेशकीमती संपत्ति का हिस्सा हैं।
आज देश और दुनिया पहले से कहीं अधिक तेजी से गतिशील और परिवर्तनशील हैं, ऐसे में युवा भारतीयों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और उनकी दक्षता के बीच कैसे समन्वय किया जाए यह एक ज्वलंत प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ा है। जोश और जुनून से भरी किसी भी देश की युवा शक्ति उसका बहुत बड़ा हथियार होते हैं। किसी की भी जिंदगी का सबसे अमूल्य समय होता है यह युवावस्था। उसका अपना भविष्य, उसका अपना जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपनी युवावस्था का किस प्रकार उपयोग करता है। युवा वह होता है जो ऊर्जा और उत्साह से लबरेज हो, बदलाव की ताकत और इच्छा रखता हो। शाहिद लतीफ का एक शेर है-
‘ अपने मंसूबों को नाकाम नहीं करना है,
मुझको इस उम्र में आराम नहीं करना है।’
लेकिन क्या आज की युवा पीढ़ी को अपनी ऊर्जा और ताकत का अंदाजा है? आजादी के 70 दशकों से अधिक समय के बाद भी यही चर्चा सर्वत्र रहती है कि आज का युवा वर्ग दिशाहीन हो गया है, भटक गया है, सही रास्ते पर नहीं है। वह दिशाहीन होकर अपराध और बुराई के गर्त में धंसता चला जा रहा है। विभिन्न तरह के नशों का शौक कब उनकी जिंदगी का, उनकी पार्टियों का अहम हिस्सा बन जाता है, उन्हें खुद भी पता नहीं चलता है। जिसके कारण लगन, जोश, जुनून, अदम्य इच्छा शक्ति की जगह लालच और हिंसा उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में घर कर जाते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण युवा अभिनेता सुशांत सिंह के रूप में लंबे समय तक चर्चा में रहा। अनियंत्रित गुस्से और धैर्यहीनता का शिकार होती युवा पीढ़ी उस बीमार शेर के समान है, जिसमें क्षमता तो हैं पर अंदरुनी तौर पर वह एक कमजोर है। और कमजोर लोगों का ही काम होता है दहशत फैलाना, गुंडागर्दी करना और अपने भविष्य के बारे में सोचने की जगह बदलते दौर की चकाचौंध में स्वार्थी बन जाना। हर चीज को जल्दी से जल्दी हासिल कर लेने की चाह, धैर्यहीनता और भोग विलास ने उनका रास्ता शॉर्टकट्स की ओर मोड़ दिया है, जिससे वे अपराधिक प्रवृति की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
यह ठीक है कि आज उसके चारों ओर चुनौतियों के बड़े-बड़े पहाड़ भी हैं और आधुनिक बदलावों ने भी उसके लिए असमंजस के हालात पैदा कर दिए हैं, जहां वह स्वयं संशयग्रस्त है और सही गलत का निर्णय नहीं कर पा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक प्रतिवर्ष भारत में एक करोड़ से अधिक छात्र 12वीं की परीक्षा देते हैं और बीस लाख से अधिक ग्रेजुएशन की। अब यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि हर साल कितने लाख लोग बेरोजगारी के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। दुखद बात यह है कि डिग्री लेने के बाद भी वे नौकरी करने लायक नहीं होते हैं। सरकारी नौकरियां इतनी अधिक संख्या में हैं नहीं और प्राइवेट नौकरियां खून चूसने वाली जोंक के समान होती हैं। ऊपर से कोरोना काल में हुई छंटनियों से भी युवा वर्ग बेरोजगार हुआ है। सवाल प्रतियोगी परीक्षाओं में उसके पास-फेल होने से ज्यादा इस ऊर्जा पुंज के, युवा संसाधन के सही ढंग से खपत करने में समाज के पास-फेल होने को लेकर है। जब हम उनके हाथों में काम नहीं दे सकते तो उनके सपनों का भी क्या मोल? दूसरा कोरोना से पहले देश का एक बड़ा युवा वर्ग अपने गृहनगर से दूर स्वतंत्र नौकरी या शिक्षा ग्रहण कर रहा था। पर कोविड-19 के चलते वे अपने गृहनगर और घर से वर्क फ्रॉम होम या शिक्षा प्राप्त कर रहें हैं। ऐसे में कहीं-कहीं शेष परिवार वालों के साथ उनके लाइफस्टाइल का संयोजन भी नहीं हो पा रहा है जो कि फिर एक बड़ी समस्या है। इस महामारी ने 18 से 25 वर्ष तक के आयु वर्ग की मानसिक सेहत पर भी बुरा असर डाला है, जिसकी कहीं से भी अनदेखी नहीं की जा सकती अन्यथा उनका यह अकेलापन बाद में अवसाद का रुप ले लेगा।
युवाओं को अपनी रोजाना की सफलता पर जरूर नजर रखनी चाहिए, जिससे उनके अंदर सकारात्मक भावनाओं का पोषण हो। उन्हें यह समझना होगा कि किताबी ज्ञान सफलता की कुंजी नहीं होता है और ना ही आर्थिक संपन्नता और गैजेट्स संतुष्टि का पैमाना। वास्तविक धरातलीय जिंदगी और उसकी खुशियों से दो- चार होना अधिक जरूरी है। उन्हें अपनी प्राचीन गौरवशाली परंपरा का बोध होना जरूरी है बजाय उसके बोझ तले दबने के। हमने स्वयं उन्हें आसमान के, चांद -तारों के सपने दिखाए हैं पर जमीन के गढ्ढों पर कभी ध्यान देना नहीं सिखाया। ऐसे में उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से उत्पन्न निराशा उन्हें अपराध के अंधे कुएं की तरफ धकेल देती है, जिसमें घुसकर वे आत्महत्या जैसा घातक कदम उठा लेते हैं।
कहा जाता है कि आज की युवा पीढ़ी “सोशल मीडिया पीढ़ी” है, सही भी है। आजकल उनके कार्यकलापों पर सिर्फ परिवार की ही छाप नहीं होती है, उस पर उनके शैक्षिक व कार्य संस्थानों, दोस्तों और सबसे बढ़कर सोशल मीडिया का भी असर होता है। हमें उन्हें दूसरे लोक को संवारना सिखाने से पहले इस जिंदगी को कैसे सहेजा जाए, यह सिखाना होगा। कई प्रतिभाशाली और ऊर्जावान युवाओं ने जिंदगी के हर क्षेत्र में ऊंचा मुकाम हासिल भी किया है, जो शेष युवाओं के लिए सीख लेने योग्य उदाहरण है। 12 जनवरी युवा, ओजस्वी, प्रखर वक्ता स्वामी विवेकानंद का जन्म दिवस भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रुप से मनाया जा सकेगा, जब आज की युवा पीढ़ी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनके विचारों को अपनाएं और आत्मसात करें। और इसकी मस्ती जिम्मेदारी समाज की भी है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था—
“मनुष्य में जो स्वभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। स्मृतियों में भी धर्म के उपदेश हैं। सामान्यतः हमारा मूल धर्म आस्तिक और नास्तिक का भेद नहीं करता। वह सबके लिए समान है। उसे नहीं मानेंगे तो विकास और संस्कार संभव ही नहीं।”
अंशु सारडा’अन्वि’
Comments are closed.