मस्जिदों और दरगाहों पर मुकदमों से साम्प्रदायिक तनाव: पूजा स्थल अधिनियम का पालन करना आवश्यक – न्यायमूर्ति नरीमन

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,6 दिसंबर।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन ने हाल ही में मस्जिदों और दरगाहों के खिलाफ दायर मुकदमों को साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए हानिकारक बताते हुए कड़ी टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि भारत में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने वाले इन मामलों पर रोक लगाने के लिए 1991 के पूजा स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम का पालन करना बेहद जरूरी है।

न्यायमूर्ति नरीमन ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम धार्मिक स्थलों की स्थिति को संरक्षित रखने का निर्देश देता है, जो 15 अगस्त 1947 को मौजूद थी। उन्होंने कहा, “यह अधिनियम भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसे लागू न करना केवल कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि समाज में शांति और सामंजस्य को भी खतरे में डालना है।”

साम्प्रदायिक तनाव को रोकने की जरूरत

न्यायमूर्ति नरीमन ने चिंता व्यक्त की कि धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद बढ़ने से समाज में साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण होता है। उन्होंने कहा, “धार्मिक स्थलों पर हमला किसी भी धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था और पहचान पर हमला है। यह न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा भी है।”

पूजा स्थल अधिनियम की भूमिका

1991 में पारित पूजा स्थल अधिनियम का मुख्य उद्देश्य धार्मिक स्थलों की 1947 की स्थिति को बनाए रखना है। अयोध्या विवाद को इस अधिनियम से अलग रखा गया था, लेकिन अन्य सभी धार्मिक स्थलों पर इसके प्रावधान लागू होते हैं।

इस अधिनियम के अनुसार:

  1. किसी भी पूजा स्थल की स्थिति में बदलाव नहीं किया जा सकता।
  2. धार्मिक स्थलों के खिलाफ नए मुकदमों की अनुमति नहीं दी जाएगी।
  3. पुराने विवाद भी समाप्त कर दिए जाएंगे।

समाज में सौहार्द और संविधान का पालन

न्यायमूर्ति नरीमन ने इस अधिनियम को धर्मनिरपेक्षता के स्तंभों में से एक बताया। उन्होंने कहा कि सरकार और न्यायपालिका दोनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस कानून का कठोरता से पालन हो। उन्होंने नागरिकों से भी अपील की कि वे अपनी धार्मिक आस्थाओं को एक-दूसरे के सम्मान में बांधे रखें।

निष्कर्ष

मस्जिदों और दरगाहों पर मुकदमे दायर करना न केवल धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, बल्कि समाज को विभाजित भी करता है। पूजा स्थल अधिनियम का पालन न केवल कानूनी, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी है। यह कानून भारतीय समाज में सांस्कृतिक विविधता और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में मदद करता है।

न्यायमूर्ति नरीमन के विचार न केवल सामयिक हैं, बल्कि एक चेतावनी भी देते हैं कि भारत जैसे बहुलवादी समाज में, धार्मिक स्थलों के मुद्दों पर राजनीति करना समाज के ताने-बाने को कमजोर कर सकता है। सरकार, न्यायपालिका और समाज को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है।

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.