समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,28 मार्च। राहुल गांधी ने एक बार फिर आरोप लगाया है कि उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया जाता। इस बार उन्होंने सीधे तौर पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को निशाने पर लिया है। दूसरी ओर, ओम बिरला ने भी कड़ा रुख अपनाया और राहुल गांधी को संसद की गरिमा बनाए रखने की नसीहत दी। लोकसभा अध्यक्ष की इस फटकार के बाद, राहुल गांधी ने सदन के भीतर बयान देने के साथ-साथ बाहर भी इसे मुद्दा बनाकर विवाद को और भड़का दिया।
राहुल गांधी का यह दावा कि उन्हें संसद में बोलने से रोका जाता है, जांच का विषय है। यह ध्यान देने योग्य है कि वह लगभग दो दशकों से सांसद हैं और कांग्रेस पार्टी को महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने के लिए पर्याप्त समय मिला है। बावजूद इसके, राहुल गांधी के व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी विपक्षी राजनीति केवल उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए।
उनका बार-बार लोकसभा अध्यक्ष से नाराजगी जताना और संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी करना चिंता का विषय बन गया है। कई बार ऐसा लगता है कि उन्हें लगता है कि उनका पारिवारिक इतिहास—पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के वंशज होने के कारण—उन्हें अन्य सांसदों से अलग विशेषाधिकार मिलना चाहिए। हाल ही में सदन में उन्होंने पदक दिखाकर जिस तरह से उत्तेजक व्यवहार किया, वह उनके अधिकार भावना (Sense of Entitlement) को दर्शाता है।
उनका आरोप कि उन्हें बोलने से रोका जाता है या माइक बंद कर दिया जाता है, उनकी नेतृत्व की समझ की कमी को ही उजागर करता है। बड़ा सवाल यह उठता है कि राहुल गांधी क्यों मानते हैं कि वह संसदीय परंपराओं को नजरअंदाज कर सकते हैं?
लोकतंत्र में सभी को समान अवसर मिलता है, लेकिन राहुल गांधी का यह मानना कि वह आलोचना से परे हैं और उन्हें विशेष छूट मिलनी चाहिए, संसदीय मूल्यों के खिलाफ जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी और सोमनाथ चटर्जी जैसे नेता, विपक्ष में रहते हुए भी संसदीय मर्यादा बनाए रखते थे और गरिमामय बहस में शामिल होते थे। लेकिन राहुल गांधी का व्यवहार बताता है कि वह बहस से ज्यादा नाटकीयता में रुचि रखते हैं।
ओम बिरला ने संसदीय नियमावली का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि सदन में अनुशासनहीनता, भाषणों में बाधा डालना, समाचार पत्र पढ़ना और अनावश्यक हंगामा करना अनुचित व्यवहार माना जाता है। राहुल गांधी अक्सर इस तरह की गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं।
इसके बावजूद, राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ओम बिरला पर हमला करते हुए कहा कि “हर बार जब मैं बोलने खड़ा होता हूं, मेरा माइक बंद कर दिया जाता है या सत्र स्थगित कर दिया जाता है।”
हालांकि, यह दावा तथ्यों के विपरीत है, क्योंकि राहुल गांधी से पहले अन्य सांसदों को बिना किसी बाधा के बोलने का अवसर मिलता रहा है। यह स्पष्ट है कि वह एक बड़ी राजनीतिक कहानी गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें वह खुद को संसद में बलिदानी (Martyr) के रूप में पेश कर सकें और अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोष दे सकें।
राहुल गांधी का व्यवहार न केवल संसद के नियमों का उल्लंघन है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति उनकी लापरवाही को भी दर्शाता है। विपक्ष के नेता का पद गौरवशाली और जिम्मेदारीपूर्ण होता है, लेकिन राहुल गांधी इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाने में असफल दिखाई देते हैं।
विपक्ष का कार्य सरकार की नीतियों पर रचनात्मक बहस करना और जनता के मुद्दों को प्रभावी तरीके से उठाना होता है, लेकिन राहुल गांधी छोटे आरोपों और नाटकीय बयानों में उलझे रहते हैं। इससे न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठता है, बल्कि पूरे विपक्ष की छवि भी प्रभावित होती है।
राहुल गांधी का संसदीय व्यवहार न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वह अपनी भूमिका को गंभीरता से नहीं लेते। लोकसभा अध्यक्ष पर बार-बार आरोप लगाना, संसदीय मर्यादा का उल्लंघन करना और खुद को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करना, यह सब उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।
यदि विपक्ष को प्रभावी बनाना है, तो उसे संविधान और संसदीय परंपराओं का सम्मान करना होगा। राहुल गांधी को चाहिए कि वह ड्रामा छोड़कर गंभीर बहस में भाग लें और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करें, बजाय इसके कि वह संसद का उपहास उड़ाएं।
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