एक ऐसी दुनिया में जहाँ शांति पहले से कहीं ज़्यादा नाज़ुक और कूटनीति एक दुर्लभ चीज़ बन गई है, वहाँ पाकिस्तानी सीनेटर पलवशा मोहम्मद ज़ई ख़ान का 29 अप्रैल को पाकिस्तान की ऊपरी संसद में दिया गया भड़काऊ भाषण युद्ध की खुली घोषणा के बराबर था। यह बयान, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 26 निर्दोष नागरिकों की हत्या करने वाले भयावह आतंकवादी हमले के ठीक बाद आया, और यह न सिर्फ़ असंवेदनशील था, बल्कि खुलकर उकसाने वाला, बेहद गैर-जिम्मेदाराना और आतंक का महिमामंडन करने वाला था। यह मात्र बयानबाज़ी नहीं थी; यह राज्य द्वारा उकसावा था।
उनकी टिप्पणी, जो धार्मिक उन्माद और राष्ट्रवादी घमंड से भरी हुई थीं, केवल राजनयिक शिष्टाचारों का उल्लंघन नहीं करतीं, बल्कि सीधे क्षेत्रीय शांति को खतरे में डालती हैं। बाबरी मस्जिद का उल्लेख कर, जो भारत का आंतरिक मामला है, ख़ान ने प्रभावी रूप से भारतीय भूमि पर पाकिस्तान का सैन्य दावा ठोंक दिया। उनका यह कहना कि “अयोध्या में नई बाबरी मस्जिद की नींव पाकिस्तान सेना रखेगी और पहली अज़ान सेना प्रमुख असीम मुनीर देंगे,” भारत की राष्ट्रीय अस्मिता और दक्षिण एशिया में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व दोनों पर सीधा हमला है।
मूल सवाल यह है ,भारत की ज़मीन पर पाकिस्तान को ऐसा बयान देने का नैतिक, ऐतिहासिक या क़ानूनी अधिकार किसने दिया? पाकिस्तान को 1947 में जो माँगा था, वह मिला था—अपनी ज़मीन, अपनी सरकार, अपनी विचारधारा। फिर आज पलवशा ख़ान किस विकृत तर्क पर यह दावा कर रही हैं कि पाकिस्तान की भारत में कोई अधूरी ‘जिम्मेदारी’ बची है?
पाकिस्तान ने 1947 में जो माँगा, वह पा लिया। लेकिन वह लगातार भारत में सांप्रदायिक तनाव भड़काता रहता है, सीधे और परोक्ष रूप से आतंकी समूहों की मदद करता है। यह भारत के प्रति जुनून कोई रणनीति नहीं, बल्कि मानसिक विकृति का प्रमाण है। ख़ान की बातें उसी मानसिकता की याद दिलाती हैं जिसने विभाजन कराया—साथ न रहने की जिद, ज़बरदस्ती से हल निकालने की आदत और धर्म और सेना का ख़तरनाक मिलन।
उनका भाषण पहलगाम नरसंहार के तुरंत बाद आया, जहाँ 26 निर्दोष भारतीय मारे गए। एक सांसद का ऐसा भाषण देना, जो अप्रत्यक्ष रूप से इस हिंसा को जायज़ ठहराए, न केवल शर्मनाक है, बल्कि लगभग आपराधिक साझेदारी जैसा है। यह कोई राजनीतिक भाषण नहीं, बल्कि आतंकवाद को राष्ट्रवाद और धार्मिक पहचान के आवरण में प्रोत्साहित करना है।
लाल क़िले में खूनखराबे की धमकी और बाबरी मस्जिद पर सेना भेजने की बातें कोई अतिशयोक्ति नहीं, यह खुलेआम हिंसा की पुकार है। यह पाकिस्तान की संसद में आतंकवाद का सामान्यीकरण है। अगर यही पीपीपी की विचारधारा है, तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
ख़ान की हूगो शावेज़ की तारीफ़ और पेड़ों पर लटकाए गए शवों की बात न केवल बेहूदा थी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के मूल्यों का अपमान भी थी। “हम चूड़ियाँ नहीं पहन रहे” जैसे बयान स्त्री-द्वेष की चरम मिसाल हैं, जिसमें मर्दानगी को ताक़त और हिंसा से जोड़ा गया। यह पाकिस्तान की राजनीति की पितृसत्तात्मक और प्रतिगामी मानसिकता को उजागर करता है।
ख़ान ने गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे खालिस्तानी अलगाववादी की सराहना की, जो पाकिस्तान की दशकों पुरानी भारत-विरोधी नीति का हिस्सा रही है। इससे साफ़ है कि पाकिस्तान के कुछ हिस्से भारत में अलगाववाद भड़काने में जुटे हैं।
पाकिस्तान जो एक ओर खुद को आतंक का शिकार बताता है, दूसरी ओर भारत के ख़िलाफ़ उग्रवादियों की तारीफ़ करता है—यह दोहरा मापदंड अब बेनकाब हो चुका है।
अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र, एफएटीएफ और अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को सतर्क होना चाहिए। जब चुने हुए प्रतिनिधि और सरकारी लोग खुलेआम हिंसा और नफरत फैलाते हैं, तो यह केवल द्विपक्षीय मसला नहीं रह जाता, यह वैश्विक संकट बन जाता है।
भारत ने हमेशा संयम बरता है, लेकिन सब्र की भी सीमा होती है। लाल क़िले, अयोध्या और भारत की संप्रभुता पर हमले की धमकियाँ भूली नहीं जाएँगी। यह भाषण महज़ जुबान फिसलना नहीं था—यह एक ख़तरनाक सोच का प्रतिबिंब था, जो हिंसा को रोमांटिक बनाती है, उग्रवाद को महिमामंडित करती है और धर्म को हथियार बनाती है।
अब पाकिस्तान को तय करना होगा—क्या वह शांति और तरक़्क़ी चाहता है, या उन युद्धपिपासुओं के हाथ में जाना चाहता है जिनके सपने हक़ीक़त नहीं, बल्कि विनाश में डूबे हैं?
भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा करेगा। और अब दुनिया को तय करना होगा—कौन शांति के साथ है, और कौन आतंक के साथ?
Comments are closed.