सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द हटाने की याचिकाएं

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,25 नवम्बर।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और यह भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष चरित्र का हिस्सा है।

क्या थी याचिकाओं की मांग?

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्दों का जोड़ा जाना असंवैधानिक है। उनका कहना था कि 42वें संशोधन के जरिए ये शब्द 1976 में जोड़े गए थे, जो संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। याचिकाकर्ताओं का मानना था कि इन शब्दों की मौजूदगी से व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धर्म का पालन करने के अधिकार पर प्रभाव पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा:

  1. संविधान की मूल संरचना: ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं, जिनसे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।
  2. संवैधानिक लोकतंत्र: भारत एक बहुधर्मी, विविधतापूर्ण देश है और धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने की नींव है।
  3. लोकतंत्र और समाजवाद: समाजवाद समाज में समानता और न्याय सुनिश्चित करता है, जो भारतीय संविधान की आत्मा है।

42वें संशोधन पर चर्चा

1976 में, इंदिरा गांधी सरकार के दौरान आपातकाल के समय, 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए थे। यह संशोधन देश की वैचारिक दिशा को स्पष्ट करने के उद्देश्य से किया गया था। इसके बावजूद, कुछ लोग इसे विवादास्पद मानते हैं और इसे मूल संविधान के साथ छेड़छाड़ के रूप में देखते हैं।

पिछली घटनाएं और याचिकाओं का आधार

यह पहली बार नहीं है जब इस मुद्दे पर बहस हुई है। पहले भी कई बार इन शब्दों को हटाने की मांग उठ चुकी है। याचिकाकर्ताओं का दावा था कि इन शब्दों के कारण संविधान की प्रस्तावना में मूल ढांचे से बदलाव हुआ है।

विशेषज्ञों की राय

संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद भारत की पहचान के मूल तत्व हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक बार फिर स्पष्ट करता है कि संविधान के मूल सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान के मूल ढांचे को संरक्षित रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह भारतीय लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की भावना को सुदृढ़ करता है। भारत की विविधता और समावेशिता के लिए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्द न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि देश की पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा भी हैं।

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