वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई: असल लड़ाई पारदर्शिता बनाम कट्टरपंथ की

पूनम शर्मा 

वक्फ संशोधन कानून 2023 को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तारीख तय हो चुकी है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच 16 अप्रैल से इस पर सुनवाई शुरू करेगी। अब तक इस कानून के खिलाफ करीब 82 याचिकाएं दाखिल की जा चुकी हैं, जबकि समर्थन में भी कई पक्ष कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं। पर असल बहस यह नहीं कि याचिकाएं कितनी हैं — सवाल यह है कि इसके पीछे मकसद क्या है और इसके मायने क्या हैं।

इस कानून को लेकर देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। बंगाल से लेकर बिहार, दिल्ली से हैदराबाद तक कई मुस्लिम संगठन और मौलाना लगातार बैठकों के ज़रिए यह तय कर रहे हैं कि इस कानून का विरोध किस तरह किया जाए। कैसे लोगों को भड़काया जाए, और कैसे इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग दिया जाए। AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता इस मुद्दे को लेकर खुलकर सामने आ गए हैं और वक्फ संपत्तियों की रक्षा के नाम पर एक तरह से सरकार को खुली चुनौती दे रहे हैं।

ऐसे में सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क्या होगी? क्या कोर्ट इस बार अपने दायरे में रहकर संविधान के तहत निर्णय ले पाएगा या पिछली बार की तरह शाहबानो केस की पुनरावृत्ति होगी? याद दिला दें कि 1985 में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ देश भर में कट्टरपंथी आंदोलन खड़ा हुआ था, और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने अदालत के निर्णय को पलटने के लिए अलग कानून बना दिया था।

आज भी कुछ वैसा ही माहौल बन रहा है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से यह बयान दिया गया है कि यदि फैसला उनके पक्ष में नहीं आया, तो वे उसी प्रकार आंदोलन करेंगे जैसा शाहबानो केस के बाद हुआ था। इस बयान ने साफ कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट से न्याय की उम्मीद नहीं, बल्कि दबाव बनाकर निर्णय पलटवाने की रणनीति है।

प्रश्न उठता है — क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसी परिस्थितियों में निष्पक्ष रह पाएगा? क्या वह यह पूछने की हिम्मत करेगा कि आखिर वक्फ बोर्ड के पास कितनी संपत्ति है? किस आधार पर यह संपत्तियाँ घोषित की गईं? और क्या जिन याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, उनके पास इन संपत्तियों से सीधा संबंध है?

दिलचस्प बात यह है कि देशभर में वक्फ संपत्तियों को लेकर 120 से अधिक केस विभिन्न हाईकोर्ट्स में पहले से लंबित हैं। इन मामलों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों द्वारा कब्जा किए जाने के आरोप हैं — चाहे वह मध्यप्रदेश के कांग्रेस नेता हों या दिल्ली के आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान, जिनके खिलाफ जांच भी चल रही है।

वक्फ कानून की सबसे बड़ी समस्या इसकी पारदर्शिता की कमी है। वक्फ बोर्ड के पास कितनी ज़मीन है, उसका हिसाब सार्वजनिक नहीं है। न ही इन संपत्तियों को अधिग्रहित करने की प्रक्रिया पारदर्शी है। कई मामलों में तो सरकारी जमीनों को भी वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट यदि वास्तव में न्याय की ओर बढ़ना चाहता है, तो उसे पहले इस पूरे सिस्टम की जांच करानी चाहिए।

मौजूदा हालात में विरोध प्रदर्शन केवल कानून के खिलाफ नहीं हो रहे, बल्कि एक बड़े राजनीतिक और वैचारिक एजेंडे का हिस्सा लगते हैं। बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार में हाल ही में जो हिंसा हुई है, वह इस बात का प्रमाण है कि वक्फ कानून के बहाने एक बड़ा सामाजिक असंतुलन पैदा करने की कोशिश की जा रही है। कई स्थानों पर पत्थरबाजी, आगजनी और हिंदुओं के घरों को निशाना बनाने की खबरें सामने आई हैं।

गृह मंत्रालय को भेजी गई खुफिया रिपोर्टों में यह भी उल्लेख है कि कुछ कट्टरपंथी संगठन भीड़ को पैसे देकर प्रदर्शन और हिंसा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। कई मामलों में प्रदर्शनकारियों को ₹500 से ₹5000 तक दिए गए ताकि वे सड़क पर उतरें और “कानूनी संघर्ष” का दिखावा कर सकें।

यह पूरा घटनाक्रम एक बहुत ही गंभीर प्रश्न खड़ा करता है — क्या सुप्रीम कोर्ट वाकई ऐसे तत्वों के सामने मजबूर हो जाएगा? क्या वह अपने निर्णय से यह स्पष्ट कर पाएगा कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है जहाँ कानून संसद बनाती है और अदालतें उसकी व्याख्या करती हैं, न कि भीड़?

यदि सुप्रीम कोर्ट इस कानून को होल्ड करता है या उस पर रोक लगाता है — बिना पारदर्शिता की मांग किए — तो यह संकेत जाएगा कि भारत की न्यायपालिका भी वक्फ माफिया के सामने झुक गई है।

यह लड़ाई सिर्फ एक कानून की नहीं, देश की न्याय प्रणाली और लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है।

Comments are closed.